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________________ श्रीकृष्ण - कथा - वसुदेव का पूर्वभव विवाह के लोभ मे नन्दिषेण मामा के घर का सभी कार्य करने लगा । पिता की इच्छा उन कन्याओ को भी ज्ञात हुई तो पहली ने कहा -यदि पिताजी ने मुझे उस कुरूप से ब्याह दिया तो मै अवग्य ही मर जाउँगी । दूसरी ने कहा- उससे लग्न हो इसमे तो मर जाना ही अच्छा 3 है । - उसके साथ शैय्या पर लेटने से अच्छा है जीवित ही चिता पर लेट जाना । तीसरी का विचार या । चौथी उससे भी आगे वढकर वोली- तुम सोने की बात कर रही हो । उसके हाथो मे हाथ देने के वजाय मैं तो यमराज के हो हाथो मे हाथ दे दूंगी। - पाँचवी ने अपने मनाभाव व्यक्त किये - मुझे तो वह फूटी आँख भी नही सुहाता । देखते ही मितली आने लगती है । छठी क्यो पीछे रहती ? उसने भी कह दिया- सूरत देखना तो दूर मैं तो नाम से भी घृणा करती हूँ उस बदशक्ल से । न जाने पिताजी ने क्यो उसे रख छोडा है ? - रख क्यो छोडा है ? यह भी कोई कहने की बात है । गधे की तरह रात-दिन घर के काम मे जुटा रहता है, वस । -सातवी ने भी अपनी घृणा व्यक्त कर दी । सातो कन्याओ के ऐसे विचार नन्दिषेण और उसके मामा को ज्ञात हुए तो मामा ने उसे धैर्य बँधाया - मैं किसी दूसरे की कन्या से तुम्हारा लग्न कर दूंगा । परन्तु मामा का यह मधुर वचन और आश्वासन नन्दिषेण को सन्तुष्ट न कर सका । वह सोचने लगा- 'जब मामा की पुत्रियाँ ही मुझे नही चाहती तो दूसरी कोई मुझ जैसे कुरूप को क्यो चाहेगी ?" इस प्रकार विरक्त होकर वह मामा के घर से निकल कर रत्नपुर नगर मे आया । वहाँ किन्ही पति-पत्नियो को क्रीडा करते देखकर
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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