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________________ जरासंध-युद्ध यवनद्वीप के कुछ व्यापारी जल-मार्ग से व्यापार हेतु द्वारका' आ पहुँचे । अन्य माल तो उन्होने वही बेच दिया किन्तु रत्नकम्बल नही वेचे। उन्हें आशा थी कि मगध की राजगृह नगरी मे उन्हे अच्छा मूल्य मिल जायगा । अधिक लाभ की आशा मे व्यापारी राजगह जा पहुंचे और वे रत्नकवल मगधेश्वर की पुत्री जीवयशा को दिखाए । जीवयशा ने उन कवलो का आधा मूल्य ही लगाया । मुंह विचकाकर व्यापारियो ने कहा —इससे दुगना मूल्य तो द्वारका नगरी मे ही मिल रहा था। १ भवभावना, गाथा २६५६-६५ । किन्तु यहाँ अन्य ग्रन्थो मे कुछ मतभेद है(क) मगध देश के कुछ वैश्यपुत्र जलमार्ग से व्यापार करते हुए भूल से द्वारवती नगरी जा पहुँचे । वहाँ मे उन्होने श्रेष्ठ रत्न खरीदे और राजगृह नगरी जाकर जरासघ को भेट किए । जरासघ ने पूछा तो उन्होने द्वारवती नगरी का विस्तार से वर्णन किया। __(उत्तर पुराण ७१/५३-६४) (ख) जरासध के पास अमूल्य मणियो के विक्रयार्थ एक वणिक पहुँचा। (हरिवश पुराण ५०/१-४) (ग) किसी व्यक्ति ने जरासंध को रत्न आदि अर्पित किए। पूछने पर उसने बताया कि मैं द्वारका पुरी से आ रहा हूँ। वहाँ श्रीकृष्ण राज्य करते हैं । यह सुनकर जरासध क्रोधित होगया। (शुभचन्द्राचार्य प्रणीत-पांडव पुराण, १६/८-११) २५९
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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