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________________ जव उसकी कुशलता से प्रसन्न होकर राजा रुक्मि ने पुरस्कार मॉगने को कहा ता वह बोला -महाराज हमे भोजन बनाने में बड़ी परेशानी होती है। इनलिए अपनी पुत्री वैदर्भी दे दीजिए। इम अनुचित माँग को सुनते ही रुक्मि एकदम आग-बबूला हो गया। दोनो को नगर से निकाल बाहर किया । राज-पुत्री इन किन्नरचाडालो का चूल्हा के यह कैसे सम्भव था? दोनो नगर से बाहर निकले और विद्या-बल से एक भवन वना कर रहने लगे। एक दिन शाब ने कहा -भैया । हम तो यहाँ आनन्द से रह रहे है और उधर माता हमारी याद मे व्याकुल होगी। जल्दी से विवाह करके द्वारका चलना चाहिए। प्रद्युम्न ने उसकी बात स्वीकार की और अर्धरात्रि में विद्या के प्रभाव से वैदर्भी के शयन कक्ष मे जा पहुँचा । उसे जगाकर रुक्मिणी का पत्र दिया । पढकर वैदर्भी ने पूछा -आपको क्या दूँ ? - सुन्दरी | तुम स्वय ही मुझे समर्पित हो जाओ। मै ही रुक्मिणो पुत्र प्रद्युम्न हूँ। मेरे लिए ही माता ने तुम्हारी याचना की थी। वैदर्भी प्रद्य म्न के प्रति पहले ही आकर्पित थी। प्रत्यक्ष देखकर तो अनुरक्त हो गई । मुंह से कुछ न बोली । प्रद्युम्न ने ही पुन कहा -यदि तुम्हारी स्वीकृति हो तो मैं तुम्हारे साथ पाणिग्रहण करूँ। वैदर्भी ने सिर झुकाकर स्वीकृति दे दी। प्रद्य म्न ने वही उसके साथ गांधर्व विवाह किया। विवाह सूचक कगन आदि अलकार पहनाए और शेष रात्रि वही व्यतीत की। चतुर्थ पहर की समाप्ति पर उठ कर चलने लगा तो उसने वैदर्भी को समझाया ~कोई तुमसे मेरा नाम पूछे तो बताना मत । -तो क्या कहूँ? -बस चुप हो जाना।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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