SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैदर्भी-परिणय एक वार रुक्मिणी के हृदय मे विचार आया कि 'मेरे भाई की पुत्री वैदर्भी भी विवाह योग्य हो गई होगी। यदि प्रद्युम्न के साथ उसका लग्न हो जाय तो · ... ..' यह सोचकर उसने एक आदमी भोजकटनगर भाई के पास भेजा । उसकी बात सुनकर रुक्मि एकदम आग-बबूला हो गया। उसे पुराने वैर की स्मृति हो आई । अपना अपमान उसके स्मृतिपटल पर तैर गया । कुपित होकर वोला -चाडाल को कन्या दे देना अच्छा समझूगा किन्तु कृष्ण के कुल मे हरगिज नही दूंगा। यह उत्तर सुनकर वह पुरुप लौट आया। भाई की भावना जानकर रुक्मिणी का मुख म्लान हो गया। उसका मलिन मुख देखकर प्रद्युम्न ने पूछा -क्या बात है, मातेश्वरी । तुम्हारा मुख म्लान क्यो है ? . -कुछ नही । वेटा ऐसे ही। प्रद्य म्न के अति आग्रह पर रुक्मिणी ने अपने विवाह की सम्पूर्ण घटना सुनाकर कहा -मैंने उस शत्रुता को मित्रता मे बदलने का प्रयास किया किन्तु मुझे निराश होना पड़ा। -तुम निराश मत हो माँ । मै मामा (मातुल) की इच्छा से ही वैदर्भी का परिणय करूँगा । मुझे भोजकटनगर जाने की आज्ञा दो। रुक्मिणी ने जाने की आज्ञा देते हुए कहा-पुत्र | ऐमा मत करना की वैर की परम्परा और भी. वढ जाय। २४७
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy