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________________ । श्रीकृष्ण-कथा-प्रच म्न का द्वारका आगमन २३३ -तप के प्रभाव से मैं सब हजम कर जाऊँगा । लाओ मुझे दो तो सही। डरते-डरते रुक्मिणी ने एक मोदक दिया । साधु खा गया। एक के बाद दूसरा-तीसरा इस तरह रुक्मिणी देती गई और साधु खाता गया। विस्मित होकर रुक्मिणी ने कहा -साधु । तुम तो बहुत गक्तिशाली लगते हो। खिलखिला कर हँस पडा प्रद्युम्न। उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। वस वडे प्रेम से मोदक खाता रहा। इघर प्रद्युम्न आनन्द से माता के पास बैठ मोदक खा रहा था और उधर सत्यभामा 'रुडुवुडु' मत्र का जाप कर रही थी। उद्यानपालक ने आकर प्रणाम किया और कहा -स्वामिनी | एक वानर ने उद्यान के सभी फल खा लिए, एक भी नही छोड़ा। तब तक दूसरे सेवक ने प्रवेश करके कहा-किसी भी दुकान पर घोडो के लिए न दाना है और न धास । -जलागयो का जल सूख गया। कही भी पीने योग्य पानी नही है। -तीसरे ने कहा। -कुमार भानुक अश्व की पीठ से गिर गए। -चौथे ने आकर वताया। चकरा गई सत्यभामा । मन्त्र जाप छोडकर दासियो से पूछा-वह ब्राह्मण कहाँ है ? दासियो ने बताया -वह भोजनभट्ट सारी रसोई चट कर गया तव हमने उसे भगा दिया। सत्यभामा निराश होकर पछताने लगी। पर अब क्या हो सकता था? उसने अपनी दासियो को रुक्मिणी के केश लाने भेज दिया। दासियो ने रुक्मिणी के पास जाकर उसके केश माँगे तो प्रद्युम्न ने अपने विद्यावल से उनके ही केश काटकर उनके पात्रो मे भर दिए
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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