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जैन कथामाला भाग ३२
- अति सुन्दर । अति सुन्दर || वधाई हो विद्याधर । देखने मे कैसा लगता है, कुमार
?
- आपसे क्या छिपाव, नारदजी । महल मे चलिए । अपनी आँखो से देख लीजिए ।
कालसवर नारद को महल मे ले गया । वहाँ उसने शिशु को लाकर उन्हे दिखाया | नारदजी गद्गद् हो गए। कुछ समय तक एकटक देखते रहे फिर पूछा
?
-क्या नाम रखा है, इस नन्हे-मुन्ने का
जी,
प्रद्मम्त ।
- बहुत ठीक । इसके मुख के प्रकाश से दिशाएँ जगमगा रही है । सही नाम रखा है तुमने ।
नारदजी की इस बात को सुन कर विद्याधर कालसवर गद्गद् हो गया । नारदजी ने शिशु को आशीर्वाद दिया और वहाँ से चल पड़े ।
द्वारका आकर नारद ने कृष्ण-रुक्मिणी को पूरा वृतान्त कह सुनाया ।
रुक्मिणी ने लक्ष्मोवती आदि अपने पूर्वभव सुनकर मयूर के शिशु को' उसकी माता से विछोह कराने पर बहुत पञ्चात्ताप किया। मुनिजुगुप्सा के कर्म की निन्दा की और भक्तिभावपूर्वक वही से सीमधर स्वामी को भाव- नमन किया ।
श्रीकृष्ण भी सीमन्धर स्वामी को मन ही मन नमन करने लगे । अर्हन्त प्रभु के वचनानुसार 'सोलह वर्ष बाद पुत्र से मिलाप होगा' यह विश्वास कर रुक्मिणी ने धैर्य धारण कर लिया ।
- त्रिषष्ट० ८६
-उत्तर पुराण ७१।३१६-३४१
विशेष – उत्तरपुराण मे कथानक तो लगभग यही है किन्तु दूसरे रूप से प्रस्तुत
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किया गया है । सक्षेप मे कथानक इस प्रकार है-