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________________ श्रीकृष्ण-क्या-प्रद्य म्न के पूर्वभव २०७ - एक विवाद का निर्णय करने मे बिलम्ब हो गया। -मधु ने वताया। -- विवाद क्या था? -व्यभिचार। -- वह व्यभिचारी तो पूजने योग्य है । -व्यभिचारी और पूज्य ? क्या कह रही हो चन्द्राभा ? वह तो दण्ड देने योग्य है । -मधु ने उत्तेजित होकर कहा। -यदि यही न्याय है तो आप भी तो जगविख्यात व्यभिचारी । चन्द्राभा ने वात अधूरी छोड दी। ___ चन्द्राभा के शब्द मार्मिक थे । लज्जा से मधु का मुख नीचा हो गया। उसी समय राजा कनकप्रभ राजमार्ग पर निकला । उमकी दशा पत्नी वियोग मे पागलो जैसी हो रही थी। उसके कपडे फटे थे और बालक उसके पीछे किलकारियाँ मारते चल रहे थे। चन्द्राभा के हृदय मे विचार आया--'अहो । मेरे वियोग मे मेरे पति की यह दगा हो गई, मुझ जैसी परवा स्त्री को धिक्कार है।' उसने राजा मध को भी अपने पति को इस दशा में दिखा दिया । __मधु को गहरा पश्चात्ताप हुआ । तत्काल धुन्ध नाम के अपने पुत्र को राज्य दिया और अनुज कैटभ के साथ मुनि विमलवाहन के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । आयु के अन्त मे अनशन करके दोनो भाइयो ने शरीर छोडा और महाशुन देवलोक मे सामानिक देव हुए । राजा कनकप्रभ तीन हजार वर्ष तक पत्नी वियोग मे दुखी रह कर मरा और ज्योतिप्क देवो मे धूमकेतु नाम का देव हुआ । अवधि ज्ञान के उपयोग से जानकर पूर्वभव के शत्रु मधु को ढूंढने लगा किन्तु उसे वह कही न मिला । वहाँ से च्यव कर मनुष्य जन्म पाकर तापस हो गया। वाल तप करके मरा तो वैमानिक देव वना । इस भव मे भी वह मधु को नहीं देख सका । पुन भव भ्रमण करता हुआ ज्योतिपी देव वना । इस जन्म मे भी उसका नाम धूमकेतु ही था। वह अपने
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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