SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन क्यामाना नाग ३२ तीर्थकर है । बलराम नवाँ बलभद्र है और कृष्ण नवां वासुदेव । कृष्ण द्वारका नगरी बनाकर रहेगा और जरासंध का वध मान्के भरतार्द्ध का स्वामी होगा । हर्पित होकर समुद्रविजय ने मुनिश्री को भक्तिपूर्वक नमन करके विदा किया । . यादव दल मुखपूर्वक गमन करता हुआ सौराष्ट्र देश में आया और रैवतक पर्वत की वायव्य दिशा मे अठारह कुल कोटि यादवो ने अपना गिविर डाल दिया। श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने भानु और भामर नाम के दो पुत्र प्रसव किए । दोनो गिगु तेजस्वी थे । यादव छावनी में हर्प और उलास छा गया । कोप्टुकि के वताए अनुसार शुभ मुहूर्त में कृष्ण ने समुद्र की पूजा करके अप्टमभक्त तप प्रारम्भ किया। तीसरी रात्रि को लवण समुद्र का स्वामी सुस्थित देव प्रगट हुआ। उसने कृष्ण को पाचजन्य गख तथा बलराम को सुघोप गख भेट किए। इसके अतिरिक्त दिव्य रत्नमाला और वस्त्र अपित करके श्रीकृष्ण से बोला--- -मै लवण समुद्र का स्वामी सुस्थित देव हूँ। आपने किस कारण मेरा म्मरण किया ? श्रीकृष्ण ने कहा -हे देव । मैने सुना है कि अतीत के वासुदेव की यहाँ पर द्वारका नगरी थी जिसे तुमने जल से आच्छादित कर दिया है। इसलिए मेरे लिए भी वैसी नगरी वसाओ। ____ 'जैसी आपकी इच्छा' कहकर देव वहाँ से चला गया । उसने सम्पूर्ण वृतान्त इन्द्र मे निवेदन किया। इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी और इन्द्र की आजा से कुबेर ने द्वारका नगरी का निर्माण किया । द्वारका नगरी वारह योजन लम्बी और नौ योजन विस्तारवाली थी । यह नगरी अनेक रत्नो से सुशोभित थी। अठारह हाथ ऊँचा, नौ हाथ भूमि के अन्दर गहरा और चारो ओर बगरह हाथ चौडी खाई
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy