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________________ १६८ जैन कथामाला भाग३२ विठाकर प्रेम करती तो कभी दूसरे अक मे-मानो अब तक के विछोह की कसर अभी पूरी करना चाह रही हो। उसने कृष्ण को इतने दृढ आलिगन मे कस लिया कि वह दुवारा न विछुड जाय । सभी यादवो ने हर्प के ऑमू बहाते हुए वसुदेव से पूछा -हे वसुदेव । तुम अकेले ही इस जगत को जीतने में समर्थ हो फिर भी कर कस के हाथो अपने पुत्रो की मृत्यु देखते रहे ? लम्बी सॉस लेकर वसुदेव बोले--उसका कारण था। -~-क्या ? -~-मेरी वचन-पालन की प्रतिज्ञा। देवकी ने और मैने सात गर्भ कस को देने का वचन दिया था। ___-और यह नकटी कन्या ?-दगार्हो ने पूछा। -यह पुत्री नन्द की है। देवकी के आग्रह से सातवाँ गर्भ मैं नन्द को दे आया था और उसकी नवजात कन्या यहाँ ले आया था। कस ने कन्या जानकर इसकी नाक काटकर ही छोड दिया। इसके पश्चात् समुद्रविजय ने सभी भाइयो की सम्मति से राजा उग्रसेन को मुक्त किया और उनके साथ जाकर कस की अन्तिम क्रियाएं की। कस की सभी रानियो ने उसे जलाजलि दी किन्तु जीवयशा ने जलाजलि नही दी । उस गर्विता ने क्रोधपूर्वक प्रतिज्ञा की —'कृष्ण-बलराम, सभी ग्वाल-बाल और सन्तान सहित समुद्रविजय आदि दशा) को मृत्यु-मुख मे पहुँचाने वाद ही अपने पति को जलाजलि दूंगी अन्यथा स्वय ही अग्नि मे प्रवेश कर जाऊंगी । यह कहकर जीवयगा मथुरा नगरी से निकल गई। मथुरा नगरी का राज्य पुन राजा उग्रसेन को प्राप्त हुआ। उन्होने
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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