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________________ ११८ जैन कथामाला भाग ३२ ___ दासी ने स्वामिनी की आज्ञा का पालन किया और शिशु को वस्त्र मे लपेट कर चल दी। दासी लपकी-लपकी चली जा रही थी शिशु को अक मे छिपाए, किसी निर्जन स्थान की खोज मे । निर्जन स्थान तो मिला नही; मिल गये सेठजी वीच मे ही। __ स्वामी को सामने देखते ही दासी सहम गई। उसने शिशु को और भी जोर से चिपकाया, मानो भागा जा रहा हो उसके अक से निकल कर-हाथो से छूट कर | दवाब पड़ा तो शिशु रो उठा। पोल खुल गई दासी की । सेठजी ने कडे स्वर मे पूछा -यह क्या कर रही है ? किस का बच्चा है यह ? कहाँ ले जा रही है ? . —जी, आप ही का बच्चा है । सेठानी जी ने निर्जन स्थान पर छोड आने को कहा है। दासी ने स्वामिनी की रहस्यमयी आजा बता दी। सेठजी जानते. तो सव थे ही किन्तु उन्हे यह वात पसन्द नही आई कि नवजात शिशु को इस तरह अरक्षित छोड दिया जाय । उन्होने गिगु अपने हाथो मे ले लिया और दासी से कहा -जाओ, कह देना कि तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। दासी का कर्तव्य समाप्त हुआ तो सेठजी का शुरू। सेठानी से तो पुत्र का पालन करने की आशा ही करना व्यर्थ था। वे गुप्त रीति से उसको पालने लगे। नाम रखा गगदत्त । ___माँ के प्यार के अभाव मे ही गगदत्त बडा होने लगा। ललित को भी यह बात जात हो गई। वह भी अपने छोटे भाई. को प्रेम से खिलाता । गगदत्त धीरे-धीरे किशोर हो गया। एक वार वसन्तोत्सव आया तो बडे भाई का प्रेम जोर मारने लगा। पिता से वोला-पिताजी ! गगदत्त को कभी अपने साथ बिठा कर खिलाया नही। पुत्र के भ्रातृप्रेम को देखकर पिता का दिल भर आया। वोले -वत्स | दिल तो मेरा भी तरसता है। पर क्या करूँ तुम्हारी माता' ।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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