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________________ श्रीकृष्ण-या--माता का न्याय २७ ___ गवापिगल की पुत्री प्रभावती वहाँ से उडी और वसुदेव को खोजते-खोजते श्रावस्ती नगरी आ पहुँची। उसने वसुदेव का हरण किया और सोमश्री के पास पहुंचा दिया। सोमधी प्रसन्न हो गई पनि को देखकर । किन्तु सुवर्णाभ नगर मे वसुदेव का रहना भी निरापद न था और मोमश्री को लेकर वहाँ से निकल जाना भी असभव। वसुदेव ने अपना रूप दूसरा बनाया और सोमश्री के साथ रहने लगे। ____ रूप तो वदल लिया था वसुदेव ने किन्तु अपनी उपस्थिति , कैसे छिपा सकते थे। मानमवेग को ज्ञात हो ही गया कि एक नया पुरुष मोमश्री के पास रहने लगा है। उसे यह कव सहन होता। वडे कौशल से उसने वसुदेव को वॉध लिया। ___ चुपचाप ही नहीं बँध गये वसुदेव । उन्होने सघर्प भी किया और गोर भी मचाया। कोलाहल को सुनकर अन्य विद्याधर आ गये। उन्होने बीच मे पडकर वसुदेव को बधन मुक्त करा दिया। वधनमुक्त हुए वसुदेव तो विवाद करने लगे मानसवेग से। वह भी क्यो पीछे रहता, उसने भी जमकर प्रत्युत्तर दिये। वाद-विवाद का मूल था सोमश्री। तर्क-वितर्क मे कोई कम नहीं था किन्तु निर्णय कौन करे ? मानमवेग के राज्य मे तो निष्पक्ष न्याय हो नही सकता था। सभी का निर्णय उसके पक्ष में ही होता। अत तय हआ कि वैजयन्ती नगरी के राजा बलसिह को इस विवाद का पच बनाया जाय। मानमवेग और वसुदेव दोनो पहुँच गये राजा वलसिंह के पास पच निर्णय कराने। सूर्पक आदि अन्य विद्याधर राजा भी एकत्रित हए। पचायत वैठी और दोनो को अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर निला। पहले वोला मानसवेग -सोमश्री मेरे लिए कल्पी गई थी किन्तु वसुदेव ने छलपूर्वक उममे विवाह कर लिया। नमुक्त हुए, उसने भी में कोई कमी न्याय हो न तय हुआ
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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