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________________ ५४ नगरामे न राखुं केणे, खीच खावोने बेशी रहो खणे | आप उठी दाखी बल धूणे, राजाही चुक्यो विमल शिर धूणे ॥ २९ ॥ शाहना गुण तो सबला जाणीया, बाण कवाण आगें प्रा पीया ॥ विमल कहे हमेगं वाणीया, घेंस बास ना बांध्या प्राणीया ॥ ३० ॥ उने आकारें व लोणं ताणे, मंथ घुमडे माथु डोलाणे ॥ तेह नी घी मांहें जेहना शर जाय, प्रधान पुरुष ते तेहनो कहेवाय ॥ ३१ ॥ चाकर तो तेणी घ डीयें गुजरी आणे, सामासामीते वलों ताऐ॥ विमल शरनाखे कबाण साही, वाण निकल्यो बेहु घडी मांही ॥ ३२ ॥ ठाकर पूबे कुरा कि हांथी आयो, राजारो सेवक लेहररो जायो ॥ नीमें जाइनी परें बोलाव्यो, रूडो रजपूतें वि मल वधायो ॥ ३३ ॥ राजायें लेखण सिरपाव दीघो, विमलने बडो परधान कीधो ॥ शेहेरमां सबलो सोनाग लीधो, अधिक आडंबरे विवा ह कीधो ॥ ३४ ॥ राजा रलियायत परजा सहु राजी, विमल वधंतां गलिया सहु पाजी ॥ ना ो किरिया वेहेलने वाजी, सातशें सांढो सो
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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