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________________ कुंवरी डाही, जेहना बहुगुणी पांचे डे नाइ ॥ ॥४३॥ चोथो कुंवर संतोष जेहने, शांति ना में तो राणी बे तेहने ॥ पांच कंवर रापीयें जा या, त्रण जगतमां न जाये वाह्या ॥४४॥स त्य धीरज ने विश्वास कहीयें, चोथो निःसंदेह कुंवर लहीयें ॥ पांचमो कुंवर करूणावंत जाणुं, सुखी नामें तो कुंवरी वखाणुं ॥ ४५ ॥ वैराग्य न्हानो पांचमो नाइ, शोना शीकहुं वरणी न जाइ॥ जेनी कीरति त्रिलोके जाणी, विद्या स रखीतो जेने घर राणी॥४६॥ शम दम संज मसु रामत जेहनी, विरक्त उदास वात ते हनी ॥ सरसती कुंवरी गुण बहु कह्या, जेनी कृ पाथी पूर्वघर थया ॥४७ ॥ ए सह परिवार निवृत्ति केरो, स्त्री पुरूपनो रंग जलेरो ॥ एहवं कटंब कहावे जेहने, पारंगत थावे वारशी तेहने ॥४८॥ निवृत्ति केरो सरवालो कीधो, एक ता लीस जणनो लेखोज लीधो॥ तिश पुरुषने इ गीपार नारी, सांनली वातने राखो विचारी ॥ ॥४९॥ बेहु शोक्योनो विस्तार जाणुं, कुंवर कुंवरीन.सरखी वखाणुं ॥ एकतालीस दूनो ब्या
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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