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________________ रे सूर रियायो, रज डंबरें अंबर गयो ॥४३॥ धवल मंगल गाये जानरणी, जाणे सरसतीनी वीणा रणजणी ॥वागे केशरीये वरघोडे चढिया, काने कुंडल हीरे ते जडीया ॥४४॥ त्र चामर मुकुट बिराजे,रूप देखीने रतिपति लाजे ॥ जान लेईने जादव सिधाव्या,नग्रसेनने तोरणे अाव्या॥ देखी राजुल मनमां जल्लसे, चंदर देखी जेम समुद्र उधसे ॥ घणा दीवसनी राजुल तरसी, सजी शिणगार जूए पारसी ॥४६॥ अंजन अं जीत अांखे अपीपाली, वेणी सरली ने सांपण काली ॥ शीस फूलने सेथें सिंदूर, मयण राजा नुं पसरयुं ने पूर ॥४७॥ गाले गोरीने माल जबूके, मदनर माती ने नजर न चूके ॥ नासा निर्मल अधर परवाली, केडे थोडीने घणी सुकु माली ॥४८॥ नूपण नूपीत सुंदर रूप, मुख पूनम चंद अनुपारूडा रूपाला कुच उत्तंग, क सणे कसीने कीधा के तंग ॥४९॥हिये लाखी पो नवसर हार, चरणे मांजर रणझणकार ॥समी शिणगार उनी जरूखे, निरखी नेम ने मनमाहे हरखे॥५०॥मोटा मंडपनी रचना अति रूडी,
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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