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________________ प्रांगण श्राव्या पण लख्या नाही, ततदाता पाग वलीने उगहीं ॥ बीजी वारना पहोता ते बारें, तो पण केणे न लख्या नारें ॥ ५२ ॥ पाग वलीने वहे वाटें, मिली महीयारी माथे लेइ ते माटें । दहीं वोहोरीने तेहने हाथे, मुनिक र विमासे ते मन साथें ॥५३॥वचन वीरनुं अ लिक नथाय, जोत्रा जगती फेरी मंडाया|महारी माताने वाऊ पी जाणो, आज मिले ने एह उखाणो ॥जिननी पासें जइ पूजे ते जेहवे, वीरें आगलथी बोलाव्या तेहवे ॥ मुणो शालिनद्र साधु तुमारी, मात पूरवनी एह महीयारी॥५५॥एवं सांजलतां श्राव्यो वैराग,अणसालेवानो थयो तिहां राग।। गिरि वैनारे गुरूने आदेशे, लेइ अगसरा पाले विशेषे॥५६॥श्रावी नद्रा तिहां अांसूडांकरती, विध विध नांतिना विलाप करती ॥ साथे ली धीरे वहुयर सघली, दुःखें टली तेहनी डगली ॥ ५७ ॥ शिल्ला ऊपरें देखी संथारो, नयणे वि बूटी नीरनी धारो॥नद्रा नाखेडे पुत्र हुं नंडी हिये शूनीने दुःखनी हुंडी ॥ ५८॥ सुत पेटर्नु पापणीयें सही, प्रांगण आव्यो पण लेख्यो
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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