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________________ [ ग ] दूसरी श्रेणीके व्यक्ति सहृदयतासे देखें- तेरापन्थके सिद्धान्तोंका परोपकारवाधक रूप न पहले था और न आचार्य तुलसीने अव उसे बदला है। आचार्य श्री तुलसीने निरूपण पद्धतिको वदला है। तात्पर्य यह है कि आचार्य भिक्षुके दृष्टिविन्दुको युगकी भाषामें रखा है। आचार्य भिक्षु और आचार्य तुलसीके सत्य दो नहीं यह अचरजकी बात नहीं। अचरजकी बात यह है कि इनके शब्द प्रयोग भी एक है। आचार्य तुलसी मामाजिक आवश्यकताओंको लोक-धर्म कहते है, तब अनजान आदमी कहते है भीखनजी इन्हें पाप कहते थे और ये इन्हें लोक-धर्म कहने लगे है। आचार्य तुलसीके इस शब्द प्रयोगके आधारको वे नहीं जानते। आचार्य भिक्षुको सामाजिक आवश्यकताओंको 'लोक-धर्म' माननेमें कोई आपत्ति नहीं थी। उनको 'मोक्ष-धर्म न मानाजाय-यह आचार्य भिक्षुका अभिमत था। उन्होंने बताया-सांसारिक सहयोगमे मुक्तिका' धर्म जिन'-धर्म, केवली'-धर्म नहीं है। किन्तु इनमे लोकसम्मत धर्म १-(क) जिमाया कहै मुक्ति रो धर्मों। (व्रताव्रत ७११) (ख) मोल लिया कह धर्म मोक्ष रो, ए फद माडयो हो कुगुरु कुबुद्धि चलाय । (अणुकंपा ७६३) २-ससारतणा उपगार किया, जिण धर्म रो अश नही छै लिगार । (अणुकम्पा ११२३६) ३-बचावणवालो ने उपजावणवालो, ए तो दोनू ससारतणा उपगारी एहवा उपगार कर आमा साहमा, तिणमे केवली रो धर्म नही छ लिगारी॥ (अणुकंपा १११४२)
SR No.010303
Book TitleJain Shastra sammat Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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