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________________ जैन महाभारत जा सकती थी, अतः उसे मूर्छा आने लगी, पर अपने को सम्भार कर उसने कहा- "प्रातिकामी ! मैं यह क्या सुन रही हूं। तुर गलत कह रहे हो, या मेरे कान गलत सुन रहे हैं। , . क्या रवि भूमि की धूलि से उग सकता है ? ..... . . बार्ज पर लगाने के लिए क्या,महाराज युधिष्ठिर के पास और कोई चीर नही थी ?" . प्रातिकामी ने बडी नम्रता से समझाते हुए कहा- 'हा महा रानी जी, महाराजाधिराज युधिष्ठिर के पास और कोई चीज नह रह गई थी ?" - "यह कैसे हया ?" द्रौपदी के नेत्रो मे असीम आश्चर्य ठार मार रहा था। तब सारथी प्रातिकामी ने जुए के खेल का प्रारम्भ से ले क अन्त तक का सारा वृतान्त कह सुनाया। सारी बाते सुन कर द्रौपद अचेत सी रह गई। उसका कलेजा फटा सा जा रहा था, उसे सारं पृथ्वी घमती सी, सारी वस्तुए चक्कर लगाती सी प्रतीत हुई । क्षत्रिय-नारी थी, अत' उस ने अपने को शीघ्र ही सम्भाल लिया क्रोध के मारे उसके नेत्र अगारो की भाति लाल हो गए उसने प्राति कामी से कहा- "रथवान जा कर उन हारने वाले जुए के खिलार्ड और धर्म विरुद्ध कार्य करने मे लज्जा न अनुभव करने वाले से पूछ कि पहले वे अपने को हारे थे या मुझे? भरी सभा मे उम से या प्रश्न पूछना और जो उत्तर वह दे उसे मुझ से आ कर बताना, उस के बाद मैं जाऊगी " प्रातिकामी गया और भरी सभा मे युधिष्ठिर से प्रश्न किया। सुनते ही धर्मराज युधिष्ठिर अवाक रह गए। वे उस प्रश्न के गहराई को समझते थे। वे अपने को मन ही मन धिक्कारने व अतिरिक्त कुछ न कर सके, उन से कोई उत्तर देते न बना। इस पर दुर्योधन बोला-"वह चुडैल वहीं बैठे बैठे प्रश्न कर रही है, अपनो वर्तमान दशा को भी उसने नही समझा, प्रातिकामी
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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