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________________ ४८ जैन महाभारत FF और रगो का ऐसा सुन्दर नमूना था कि नीले तथा श्वेत रग से रग फर्श को देख कर कोई भी व्यक्ति 'जल' का धोखा खा सकता था, जहा जल था वहा फर्श दिखाई देता था, इसी प्रकार दीवारे भी छद्ममयी थी, दूर से द्वार दीख पड़ने वाली जगह मोटे पत्थरो को दीवार थी और जहा दावार प्रतीत होती थी, वह द्वार थे। विभिन्न भाति की रत्न पुतलिया, चित्र, तथा नाना प्रकार के कामो से युक्त वह महल एक अद्भुत भवन बन गया था। " पुत्र जन्मोत्सव पर युधिष्ठर ने अनेक नरेशो को निमन्त्रित किया, श्री कृष्ण, बलराम दुर्योधन, कर्ण, शकुनि आदि सभी निमन्त्रित थे। बहुमूल्य भेट दी, बहुमूल्य उपहारो के ढेर लग गए। देश विदेश से कलाकार निमन्त्रित थे। आठ दिन तक विभिन्न नृप, संगीत और प्रदर्शनों की धूम रही। युधिष्ठिर ने मुक्त हस्त से धन व्यय किया दान देने में युधिष्ठिर ने इतना धन व्यय किया देखने वाले भी दातो तले उगली दवा कर रह गए। हस्तिनापुर, द्वारिका और इन्द्रप्रस्थ के ब्रह्मचारी विद्यार्थी बडी संख्या में एकत्रित थे, उन्हें सहस्रो गौएं दान दी, जो 'जिसने मागा वही दिया, याचक लोग कह उठे-"महाराजाधिराज युधिष्ठिर ने पुत्र जन्मोत्सव पर जो किया; वह, अभूतपूर्व है. प्रशसनीय हैं, और एक समय तक उसकी याद रहेगी।" . .. .. सभी आनन्द चित थे ' परन्तु दुर्योधन के दिल पर साप लोट रहा'था, वह ईर्यों के मारे जला जा रहा था यद्यपि महाराजा धिराज युधिष्ठर ने भ्रातृ स्नेह से धन का हिसाव किताव उसी के जिम्मे दे दिया था, और उसे इस बात की छूट थी कि वह अपनी इच्छानुसार जितना चाहे व्यय करे । यह बात इस लिए की गई। थी ताकि दुर्योधन के मन का मैल जाता रहे और वह समझ ले कि युधिष्ठिर उसे सगे भ्रात तुल्य मानते हैं। परन्तु जिस समय कोष की चाबिया उसे मिली तो वह मोचने लगा कि यह सुन्दर अवसर है पाडवों को वरवाद करने का। खूब धत उडाऊगा और कोप खाली कर दू गा। जिससे राज कोप का सन्तुलत बिगड़ जायेगा और प्रजा के लिए व्यय होने वाला धन समाप्त होने से, प्रजा जन पाण्डवा के प्रति क्रूध हो,जायेगी, क्योकि जन साधारण के हितार्थ भी व्यय
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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