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________________ जयद्रथ वध AAA .. गांधारी के यह वचन सुनकर दुर्योधन को बडा खेद हुआ हुतांश व निराश होकर वह वापिस चला आया। अपने शोक विह्वल हृदय को लिए दुर्योधन इधर उधर फिरता था। श्री कृष्ण द्वारा उसकी योजना असफल कर दिए जाने से वह बहुत दुखित हुआ, और अन्त मे जब उसे कही भी शाति न मिली तो गदा लेकर एक जलाशय को ओर चला गया । जहा वह छुपकर अपने जीवन पर विचार करने लगा। जितना वह विचार करता, उतना ही उसे दुःख होता। वह अपने को - सर्व प्रकार से असफल व्यक्ति समझने लगा। . .. . '- दूसरे दिन जब रणक्षेत्र मे दुर्योधन दिखाई न पड़ा, तो पाडव सोचने लगे कि वह कही जा छुपा है। पाचो ने सोचा कि उसे खोजना चाहिए । जहा कही हो, द ढकर उसे दण्ड दिया जाय पाचो श्री कृष्ण सहित उसकी खोज मे निकले। चलते चलते वे उसी जलाशय पर पहुंच गए जहाँ दुर्योधन छिपा बैठा था । युधिष्ठिर..ने , उसे ललकार कर कहा-"धूर्त ! अब अपने प्राण वचाने के लिए..यहा प्रा छुपा है । अपने परिवार और मित्रो. का नाश कराने के पश्चात स्वय वच निकलना चाहते हो। तुम्हाग-हर्ष और अभिमान क्या हुआ ? तुम क्षत्रिय कुल में पैदा होकर भी कायरता दर्शाते हो ? वाहर निकलो और क्षत्रियोचित ढग से युद्ध करो । युद्ध से भाग कर जीवित रहने की चेप्टा करके कौरव कुल को कलकित करने वाले दुर्योधन । तुम अपने कर्मों से अपने कुल पर बहुत कालिख पोत चुके, अन्त समय पर और कालिख क्यो पोतते हो ?" .. युधिष्ठिर की ललकार सुनकर दुर्योधन व्यथित होकर बोला"युधिष्ठर ! यह मत समझना कि मैं प्राण बचाने के लिए यहा हर कर बैठा हू । मैं भयभीत होकर भी नहीं पाया।" "तो फिर किस लिए आये है यहा श्रीमान ?"-भीम ने चिढकर पूछा। - "मैं अपनी थकान मिटाने के लिए इस ठण्डे स्थान पर चला पाया था, युधिष्ठिर ! मैं न तो डरा हुया हूं न मुझे प्राणो माहो मोह है । फिर भी, सच पूछो तो युद्ध से मेरा जी ऊत्र-गया है। मेरे
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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