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________________ जयद्रथ बध . ५६१. उस पर वे बिल्कुल उसी प्रकार झपटे जैसे किसी मृग को अपनी माद पर आया देख सिंह झपटता है । धृष्टद्यम्न की आंखों मे रक्त-पिपासा झलक रही थी। बहुत देर तक वह आक्रमण करता रहा । एक वार दोण ने ऐसा पैना वार किया कि वह धृष्टद्युम्न के प्राण ही ले लेता, यदि ठीक उसी समय सात्यकि बाण से उनके प्रहार को न काट देता। प्रचानक सात्यकि की बाण वर्षा हो जाने से द्राण का ध्यान उसकी पोर चला गया। इसी बीच पाचाल देश के रथ सवार घष्टद्युम्न को वहा से हटा ले गए। काले नाग के समान फुफकारते हए और लाल-लाल नेत्रो से. चनगारिया बरसाते हुए दोणाचार्य सात्यकि पर टूट पडे । परन्तु · जात्यकि भी कोई मामूली योद्धा न था । पाण्डव-सेना के सब से बतुर योद्धाओ मे उसका स्थान था। जब उसने द्रोणाचार्य को अपनी मोर झपटते हुए देखा तो वह खुद भी उनकी ओर झपट पड़ा। _ चलते २ सात्यकि ने अपने सारथि से कहा- "सारथि । यह ई द्रोणाचार्य ! जो अपनी ब्राह्मणोचित वृत्ति को छोडकर धर्म राज को पीडा पहुचाने वाले क्षत्रियोचित कार्य कर रहे हैं : इन्ही के कारण दुर्योधन को घमण्ड है। स्वय यह भी अपने बल के, घमण्ड में राये रहते हैं चलायो वेग व कुशलता से रथ, तनिक इनका भी सर्प- चूर्ण कर दू ।" : . सात्यकि का सकेत पाते ही सारथि ने घोडे छोड दिए । चाँदी । सफेद चमकने वाले घोडे हवा से बात करने लगे और सात्यकि का द्रोणाचार्य को योर ले दौड । पास पहचते २ सात्यकि और द्रोण । एक दूसरे पर वाण बरसाने आररभ कर दिए। दोनो मे. भयकर युद्ध छिड गया। दोनो ओर से नाराच बाणो की वर्षा हो रही थी। सानो वीर कब बाण तरकश से लेते है कव खीचते है और कब छोड ति है। इस बात का पता ही न चलता था। दोनो के बाणो से रथो के बीच की दूरि वाणो से पट गई । इस रोमांचकारी दृश्य को देख दूसर सैनिक पर स्पर युद्ध करना भूल गए और सात्यकि दोनो 'स्था को ध्वजाए टूट कर गिर गई। रथो की छतरिया भी टट ३ । पर वे आपस में भिड़े ही हुए थे। कोई भी हार मानने को पार न था । सात्यकि बार वार सिंह गर्जना करता. और उनके '
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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