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________________ जैन महाभारत रहा है । मैं उसे जीवत पकड कर तुम्हे सौपना चाहता हू । इस प्रकार तुम्हारी एक इच्छा की पूर्ति हो जायेगी।" __ बीच ही मे दुर्योधन बोल उठा-"पर जयद्रथ वेचारे का क्या होगा ?" "हाँ, तुम भी बड़े शूरबीर हो । अर्जुन का सामना करने के लिए तुम तुरन्त वहा जाता।" "क्या आपको आशा है कि ऋद्ध अर्जुन को मे रोक पाऊगा।" ___"मैं तुम्हे एक अभिमान्त्रित कवच दूगा। इस देवी कवच को पहन कर यदि तुम युद्ध करोगे तो तुम पर शत्रु का कोई भी अस्त्र प्रभाव न डाल सकेगा । और इस कवच के सहारे तुम जयद्रथ की रक्षा कर सकोगे । इधर मे युधिष्ठिर को पकड़ लूगा।" द्रोण की बात सुनकर दुर्योधन को अपार हर्प हुआ । उसने देवी कवच लिया और उसे पहन कर एक बड़ी सेना साथ ले अर्जुन का सामना करने चल पडा। अर्जुन कौरव सेना को तहस नहस करता हुमा आगे वढा चला जा रहा था। बहुत दूर निकल जाने पर श्री कृष्ण ने देखा कि घोड़े थके हुए है । उन्होने रथ एक स्थान पर रोक दिया ताकि घोड सुस्ता ले। रथ रुका देखकर विन्द और अनुविन्द नामक दो वीरो ने अाक्रमण कर दिया , अर्जुन ने बड़े कौशल से उनकी सेना को तितर बितर कर दिया और उन्हे भी मौत के घाट उतार दिया। इसके वाद थोडी देर श्री कृष्ण ने घोडो को सुस्ताने का अवसर देकर फिर रथ हांक दिया और जयद्रथ की ओर तेजी से रथ बढाने लगे। पीछे से शोर उठा तो श्री कृष्ण ने घूम कर देखा और अर्जुन को सचेत करते हुए बोले "पार्थ ! देखो, पोछे, से दुर्योधन आ रहा है, उसके साथ एक बडी सेना है चिरकाल से मन मैं क्रोध की । जो आग दवा' रक्खी है, प्रोज उसे प्रगट करो। इस अनर्थ की जड़ में को जला कर भस्म कर दो। इससे अच्छा अवसर नही मिलेगा आज यह तुम्हारा शत्रु तुम्हारे बाणो का लक्ष्य बनने को आ रहा है। स्मरण रहे यह महारथी है। दूर से भी आक्रमण करने की सामर्थ्य
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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