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________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा . ५४१ ने-खड़े कुछ लबा मेरे वा, सका रथ शिविर के इतना निकट हो गया कि वह शिदिर के सामने खड़े व्यक्ति को देख सकें, दुखित होकर फिर बोला'गोविन्द । अाज कुछ लक्षण ही उलटे हो रहे हैं । प्रतिदिन जब में युद्ध से लौटता था, तो सभी मेरे स्वागत को बाहर निकल पाते थे। मेरा पुत्र वीर अभिमन्यू शिविर से बाहर खडा मुस्कराता होता, पर अाज तो कोई भी नही दीख पड़ रहा, बल्कि शिविर के सामने खडा सैनिक भी बार-बार मुझे देखकर सिर नीचा कर लेता है। कही कोई दुखद घटना तो नही घट गई ! आज मेरे दक्षिण की और चले जाने के पश्चात, सूना है. द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह रचा था। उसे तोडना मेरे अतिरिक्त हम में से और कोई नहीं जानता। हाँ अभिमन्य को अभी मैं चक्र व्यूह मे प्रवेश करना ही सिखा सका हूँ, व्यूह से निकलना अभी उसे नही बताया कहीं महाराज युधिष्ठिर या मेरे किसी दूसरे भ्राता के ऊपर कोई विपत्ति तो नही टूट गई ? मेरा हृदय बोझल हो रहा है। मुझे सारा शिविर शोक में डूबा प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है ?" " "धनजय ! विश्वास रक्खो कि युधिष्ठिर का वध कोई कर पायेगा, अभी ऐसा कोई नही जन्मा ।-श्री कृष्ण ने घोडो की रास ढाली करते हुए कहा-रहो किसी के युद्ध मे काम पाने की वात, सो दावानल जले और उसमे लोग कदें तो यह आशा करना कि दावानल का उन पर कोई प्रभाव ही नहीं होगा, मूर्खता है ! युद्ध आय है तो कितने ही प्रियजन मोरे ही जायेंगे। मरने वालो का पाक करने से क्या लाभ ? जो आया है उसे जाना ही है। जन्न भीष्म जैसे मारे गए तो दसरों की तो बात ही क्या? फिर भी निश्चित रहो, तुम्हारे भाईयो मे से सभी सुरक्षित हैं।" । अर्जुन का मन फिर भी दुखित रहा, वह शोक को अपने से अलग न कर पाया । बोझल मन लिए वह शिविर पर जाकर उतरा, तो सैनिको ने उसे सामने देखकर गरदन झुका ली। उसका हृदय घड़क उठा। 'क्या बात है ?" सैनिक कुछ न बोला। उसने पुनः प्रश्न किया। "यह रोनी सी सूरत क्यों बना ली है ? क्या कोई विशेष घटना हुई ?
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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