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________________ कर्ण का दान ५१५ "कर्ण ! आप नही जानते कि वह कौन है ?" 'कोई भी हो।" "वह देवराज इन्द्र है श्री कृष्ण ने उसे भेजा है।" "यह तो और भी अच्छी बात है कि देवराज इन्द्र याचक वन कर मेरे पास आ रहा है मैं उसे कदापि निराश नही करूगा ।' . "परन्तु एक तरफ से वह तुम्हारा जीवन ही तुम से मांग रहा है।" "प्राणो के रक्षक यत्रो की ही नहीं, वह चाहे मुझसे प्राणे भी ___ माग ले, मैं सहर्प दे दूगा। यही तो मेरी प्रतिज्ञा है।" . कर्ण का उत्तर मुनकर वह 'देवता अवाक रह गया । बहुत समझाया, पर कर्ण न माना। बेचारा निराश होकर चला गया, और मोचता रहा-"यह तो स्वामी ही जा रहा है, अब मैं क्या कर सकता हूं • कोई दूसरा होता तो उसे जाने हो न देता।" " इन्द्र याचक के वेश में पहुंचे। कर्ण ने बढ़ा कर आदर सत्कार किया। फिर पूछा-"कहिए क्या चाहिए ?' इन्द्र वाले -"वर्ण | मैंने आपकी दानवीरता की बडी प्रशसा सुनी है। यदि यह सत्य है कि आप किसी को निराश नहीं करते तो कृपया अपने देवी कवच कुण्डल मुझे प्रदान कीजिए।" सुनते ही कर्ण ने कवच उतारना प्रारम्भ कर दिया। कुण्डल भी उतार डाले और इन्द्र को देते हुए बोले-- 'और कुछ ? कुछ और चाहिए तो वह भी माग लो " अरे इन्द्र कवच और कुण्डल वो क्या वस्तु है तुम जानो और श्री कृष्ण की सम्मति लेकर पायो और तुम मेरे प्राण मागो देखो में देता हूं या नही। कर्ण ने हार्दिक प्रसन्नता के साथ कहा। ___ कर्ण की दानवीरता को देखकर इन्द्र मन ही मन लज्जित हुए। उन्हे खेद हुआ कि ऐसे महापुरुष से मैंने उसके प्राण ही माग लिए । वे वोले- 'कर्ण | जानते हो मैं कौन हूं ?" "हा, जानता हूँ, तुम याचक हो। "नही, मैं इन्द्र हूं।" "गलत, बिल्कुल गलत ! तुम इन्द्र कसे ? इन्द्र तो मैं हूँ । तुम तो याचक हो।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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