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________________ कर्ण का दान ५१३ श्री कृष्ण बोले- "युद्ध तीन दिन के लिए स्थगित कराकर मेने आपको बुलाया है। समझ लीजिए कोई महत्त्व पूर्ण कार्य ही होगा।" ____ "हा, यह तो मैं समझता हूँ। अब बताईये भी कि मुझ से प्राय क्या चाहते हैं ?"-इन्द्र ने तूछा।। "बस आप से इतना ही चाहता हूँ कि याचक का रूप धारण करके जाईये और कर्ण से देवी कवच कुण्डल मांगकर ला दीजिए।" --श्री कृष्ण अपने उद्देश्य को प्रगट करते हुए बोले । "कर्ण के कवन और कुण्डल से- आप क्या लाभ उठाना चाहते हैं?".-इन्द्र ने पूछा। . "बात यह है कि कणं पर जब तक देवी कवच कुण्डल रहेंगे, वह किसी प्रकार भी नहीं मारा जा सकता। और विना कर्ण के मरे पाण्डवों की विजय नही हो सकती. सम्भव है कर्ण के हाथो अर्जुन हा माग जाये इस लिए दुष्ट दुर्योधन को पराजित करने के लिए कर्ण से कवच कुण्डल ले पाने की आवश्यकता है।"-श्री कृष्ण गम्भीरता पूर्वक बोले। "मधु सूदन | आप भी ऐसे उपाय अपनाकर शत्रु को पराजित करना चाहेगे, यह तो श्राशा नही थी।"-विस्मित होकर इन्द्र बोले । ___ "मैं न्याय के पक्ष में हैं। सूद की बात है कर्ण इतना महान व्यक्ति होते हुए भी परिस्थितियो वश दुष्ट दुर्योधन की पोर है, उम नीच को परास्त करने के लिए मुझ सखेद कर्ण का वध कराने की योजना करनी पड़ रही है।'-श्री कृष्ण ने कहा। . "लेकिन । कर्ण से धोखा देकर कवच कुण्डल लेना तो अन्याय है। मैं ऐसा कैसे करू ? कर्ण महान व्यक्ति है। मुझे उसके चरण छूने चाहिए। उस बसा दानवीर ससार मे और कौन है : फिर भाप हो वताईये इतने पुण्यवान से धोखा करना कहा तक उचित है"- इन्द्र ने श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन न कर सकने की अपनी विवशता को दर्शाते हुए कहा । "कर्ण ! इतना दानवीर है कि वह यह जानते हुए भी कि कवच कुण्डल क्यो मांगे जा रहे हैं, वह सहर्ष दे देगा । नाप निश्चित राहए कि इससे आपकी महानता पर प्राच नहीं आने वाली । क्योकि पाप जो कुछ करेंगे वह धर्म व आपकी रक्षा के लिए ही करेंगे और
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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