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________________ ५१० जैन महाभारत कवच, कुण्डल है। जब तक उसके शरीर पर देवता द्वारा दिये गए कवच,त्तथा कुण्डल है, तब तक तुम्हारा कोई अस्त्र भी उसका वध नहीं कर सकता "श्री कृष्ण ने कर्ण को अपराजिता का कारण बताते हुए कहा ! -:. . . . . . . . : .. ... .यह सुनकर अर्जुन को भी चिन्ता हो गई। उसने पूछा-"तो गोविन्द उसके शरीर से कुण्डल उतरवाने की युक्ति ही सोचिए।" " , - - "वस इसी जटिल समस्या को सुलझाने के लिए मैं व्याकुल हू1",-श्री कृष्ण-वोले । .---." -:-, : देवी कवच कुण्डल कर्ण को कैसे मिले ? यह जाने विना कर्ण की कथा अधूरी ही रह जायेगी, इस लिए यहां हम उसे भी बता देना आवश्यक समझते हैं। . . . . . . . । युद्ध से बहुत दिनो पूर्व की बात है। ' · कर्ण की दानवीरता की चर्चा सारे संसार में होने लगी। कोई याचक उसके द्वार से खाली हाथ नहीं लौटता था। कर्ण की प्रतिज्ञा थी कि याचक यदि प्राण भी मागे तो भी वह उसे निराश न करेगा। धन तथा सम्पत्ति दान में देना तो उस के दैनिक कार्य क्रम की बात थी। ' आखिर यह चर्चा देवताओं तक भी पहुंच गई और स्वय इन्द्र ही कर्ण के प्रशसक हो गए। एक दिन समस्त देवता गण उपस्थित थे। इन्द्र अपने सहासन पर.' विराजमान थे। मृत्यू लोक की वात चल पडी इन्द्र बोले - "भरत खण्ड के दानवीर कर्ण जैसा दानवीर न आज तक कोई हुग्रा, न है और कमचित भविष्य मे कोई हो भी न ।' वह किसी याचक को इकार करना ही नहीं जानता। उसकी प्रतिज्ञा है कि कोई उस के प्राण भी मांगे तो वह 'प्रसन्नता पूर्वक दे देगा। सारा ससार उसका प्रशंसक हो गया है।" । एक देवता को शंका हो गई। बोला-"महाराज! मुझ । इस बात मे सन्देह है। सम्भव है वह धन आदि दान मे दे देता हा, इसी से नाम हो गया हो, पर किसी याचक को वह इंकार नहीं । करता; यह गलत बात है।" - "तुम्हे सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा ले लो।" 'इन्द्र बोले ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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