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________________ जैन महाभारत ही लायक था उस ने पूर्ण चतुराई का परिचय दिया । अर्जुन विद्युत गति से अपने स्थान बदल लेता था, जल्दा हो बाणो का रुख बदल जाता और प्रत्येक संशप्तक को अर्जुन अपने ही सामने प्रतीत होता। घोर सग्राम हो रहा था, एक वार-क्रुद्ध होकर संशप्तको ने इतनो घोर वाण वर्षा की कि अर्जुन का रथ वाणो से ढक गया, उस समय श्री कृष्ण ने कहा-"अर्जुन ! कुशल तो है ?" अर्जुन श्री कृष्ण की बात समझ गया और 'हा' कह कर भिगों के वाणो से छाये अधकार में हो गाण्डीव से एक ऐसा अद्भुत वाण मारा कि भिगत्तों की वाण वर्षा विल्कुल ऐसे ही हवा में उड गई जैसे प्रांधी से मद्यखण्ड । उस समय रणभूमि का दृश्य इतना भयानक था मानो प्रलय के समय सदृश की नृत्य भूमि का दृश्य हो। सारे क्षेत्र मे जहा तक दष्टि जाती, सिर विहीनं धड, भुजा विहीन धड, टूटे हाथ पैर, कटे सिर आदि ही दिखाई देते। स्थान स्थान पर मास पिंड और रक्त की धाराएं सी बहती दिखाई देती। ज्यो हो अर्जुन भिंगर्त देशीय सशप्तको से युद्ध करने के लिए गया, द्रोणाचार्य ने अपनी सेना को प्राज्ञा दी कि पाण्डवो के व्यूह पर उस पोर अाक्रमण करो जहां पर युधिष्ठिर की पताका लहरा रही है। अाझा पाने की देरि थी कि सेना ने उसी ओर अभियान कर दिया । . द्रोणाचार्य को एक विशाल सेना सहित अपनी पोर पाते देख युधिष्ठिर उनका मन्तव्य समझ गए और उन्होने धृष्ट द्युम्न का सचेत करते हुए कहा-"वह देखो ब्राह्मण वोर प्राचार्य द्रोण अपन वचन की पूति के लिए मेरी ओर आ रहे है। ऐसा न हो कि अजुन के दूसरी ओर होने का लाभ वे उठा जाये। शीघ्न ही उनको प्रगति रोकने का प्रयत्न करो।" धृष्ट द्युम्न ने कहा-"प्राप निश्चित रहिए । में द्रोण को प्राप के पास तक पहुचने का अवसर ही न दूगा।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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