SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * बत्तीसवां परिच्छेद * ®®®®®®®®®® %%%%%%% युद्ध होने लगा %%$#%%% 強強強強強強強強強強強強強強強強 दोनो अोर के योद्वा अस्त्र-शस्त्रो से लैस थे, सेना नायक अपनी अपनी सेनामो को अन्तिम आवश्यक आदेश तथा उपदेश दे चुके । दोनो ओर के सेनापतियो ने अपनी अपनी सेनाओ को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास दिलाया,स्वर्ग के सुख भोगने का लोभ दर्शाया और क्षत्रियोचिय वीरता दिखलाने के लिए आव्हान किया। इस के पश्चात दुर्योधन जो अपनी विशाल सेना के बल पर म्भ में चूर था भीष्म जी के पास जाकर कहने लगा-"पितामह । व देरी काहे की है । आक्रमण कीजिए।" भीष्म जी बोले-"दुर्योधन । तुम चाहते हो इस लिए में युद्ध - तो प्रारम्भ किए देता हूँ पर मुझ ५ - पाण्डवो को ही प्राप्त होगी।" । ये हमारे शत्रु है या "पितामह ! श्राप सेना नायक होकर ऐसी बात कहते है ? डवा के मोह मे युद्ध के प्रारम्भ होते समय ऐसी बात मुह से न नकालिए । इस समय पाण्डवों को परास्त करना हमारा कत्तव्य है। सार शत्रु है और हमारी अपार शक्ति के सामने उन के लिए 'टिकना भी असम्भव है।"दुर्योधन ने कहा । ____पितामह ने उत्तर दिया- वेटा! शत्र की शक्ति को कम पारने वाले कभी विजयी नही हया करते।" यधिन ने कहा के सामने उन पर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy