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________________ कृष्णोपदेश ३५१ और माननीय वृद्धजनो पर तलवार उठानी पडे । हमे नही चाहिए ऐसा राज्य जिसके लिए मेरा अपना परिवार ही नष्ट हो जाय । ऐसे राज्य से भला क्या लाभ ? हमे जिनके लिए राज्य भोग और सुखादि अभीष्ट हैं वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध मे खडे हैं। गुरुजन, ताऊ चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर नाती, तथा और भी सम्बन्धी लोग है। मधु सूदन ! चाहे, यह सब लोग मुझे मिल कर मौत के घाट उतार दें परन्तु मैं तीनो लोको के राज्य के लिए भी इन सब को मारना नही चाहता। फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या ? जनार्दन धृत राष्ट्र के पुत्रो को मार कर भला हमे क्या प्रसन्नता होगी। इन आतताइयों को मार कर भी हमे पाप ही लगेगा। और अपने परिवार को मारकर भला हम कैसे यश प्राप्त कर सकते है।" -- रण भूमि मे शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कह कर धनुष बाण एक ओर रख कर नीचा सिर कर के "बैठ गया। श्री कृष्ण समझ गए कि जब तक अर्जुन शंका रहित नही होगा, तब तक रण के लिए उद्यत नही हो सकता। उसे परिवार का मोह सता रहा है। वह मोह जाल मे फस कर विजय को भावी पराजितो के चरणो मे सौप देना चाहता है। इस समय आवश्यकता इस बात की है कि अर्जुन को ऐसा पाठ पढाया जाय कि वह परिवार के मोह को त्याग कर के उत्साह पूर्वक गाण्डीव उठाले। इस लिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा-"जिन भाषित धर्म की दुहाई तो तुम देते हो पर इतना भूल गए कि मोह असंख्य प्रकार दुष्कर्मों तथा पापो को जन्म देता है। मोह ही जग वैतरणी सपार नही उतरने देता। तुम क्षत्रिय हो। तुम्हे इस प्रकार की वात शोभा नहीं देतीं। अर्जुन यह सामने जितने जीव खडे हैं उन्ह किसी न किसी दिन मरना अवश्य है। जिस प्रकार पतझड आन पर पत्तै स्वयमेव ही टूट कर भूमि पर गिर पडते है, इसी कार का सन्देश मिलने पर जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिन्हें तुम आज मृत्यु से बचाना चाहते हो, वह किसी न दिन अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगे और तुम उनकी कोई सहायता न कर सकोगे। प्रात्मा तो नित्य है। किसी की मृत्यु
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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