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________________ .. जैन महाभारत - शकुनि की बात सभी ने स्वीकार कर ली और 'दुर्योधन पितामह के पास जाकर बोला- "पितामह ! आपकी कृपा ने सभी तैयारिया पूर्ण हो गई हैं। अब आप ही हमारे सरक्षक हैं। सभी महारथी चाहते है कि आप हमारी सेना के सेना नायक बने । प्राप के नायकत्व मे हमारी विजय अवश्य होगी।" " . पितामह कहने लगे - "तुम ने युद्ध की घोषणा करते समय हम से कोई परामर्श नही लिया । फिर तुम्हारे मित्र कर्ण को हमारे ऊपर सन्देह है कि हम पाण्डवों के पक्षपाती है। ऐसी दशा मे यही अच्छा है कि तुम कर्ण को ही अपना सेनापति बनाओ। मैं तुम्हारी ओर से लड़ गा अवश्य पर कर्ण जैसे उद्दण्ड और अभिमानी के रहते मैं सेनापतित्व स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे सन्देह है कि मेरे सेनापति होने पर वह मेरी आज्ञाओ का पालन भी करेगा।" . "पितामह | आपके सहारे पर तो हम ने युद्ध ठाना है। आप ही ऐसो बात करेंगे ती कैसे काम चलेगा। आप कर्ण को भूल आइये और सेनापतित्व स्वीकार कीजिए ."-दुर्योधन ने विनती की। "तुम पहले कर्ण से बात करो। मैं जानता हूं कि तुम मेरे परामर्श से अधिक कर्ण की बात मानते हो। उसके रहते मैं कोई उत्तर नहीं दे सकता।"-भीष्म पितामह ने दो टूक उत्तर दिया। दुर्योधन चुपचाप वहा से वापिस चला गया और कणं से सारी वात प्राकर कही। उसे क्रोध हो पाया, बोला-"पितामह सदा ही मेरा अनादर करते रहते है। मै भी व्रत लेता हूं कि जब तक पितामह जीवित है तब तक मै रण मे भाग नही लूंगा और जब रण मे उतरूगा तो अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करूगा।" कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन बड़ा चिन्तित हुप्रा। पर तीर हाथ से छूट चुका था अब कर्ण का निश्चय वदलवाना सम्भव नहीं था। वह विवश होकर पुनः पितामह के पास गया और कर्ण । बत की बात कह सुनाई। पितामह बोले-"वेटा ! उस अभिमाना
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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