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________________ जैन महाभारत प्राज कल दुर्योधन के सिर पर अहकार मवार है। कर्णादि ने उस को उत्तेजित करे रक्खा है। वह अब आपको भी अपना शत्रु समझने लगा है। क्यो कि व्यक्ति गत रूप से प्रीप हमारी और प्रोगए है। इसलिए शव के पास आप का अकेला इम प्रकार जाना ठीक नहीं है। कही अहकार में अन्धे हो रहे दुर्योधन में आप के साथ कुछ अनुचित बाते करदी या अपने दरबार को ही रण क्षेत्र समझ लिया तो फिर बहुत बुरा होगा !"युधिषिहरे ने अपने मन की बात कही। " - बात सुन कर श्री कृष्ण के अधरो पर मुस्कान खेल गई, बोले-"राजन् ! आप की चिन्ता व्यर्थ है। मैं दुष्ट बुद्धि दुर्योधन और उसके सहयोगियों तथा परामर्श दातानो के स्वभाव से परिचित हूँ। शत्रु पक्ष ऐसे अवसर पर क्या क्या कर सकता है। यह मुझे ज्ञात है। मैं स्वयं सावधान रहगा। परन्तु मैं किसी के लिए यह कहने का अवसर नहीं देना चाहता कि जब कौरव व पाण्डवों के बीच युद्ध ठन रहा था तो कृष्ण ने जो उन दोनों के समान हितैपी थे, जो दोनों के सम्बन्धी थे, उस समय अपने कर्तव्य को निभाने मे कोई.कसर उठा रक्खी। मैं आप की ओर से शांति व सन्धि को सन्देश ले जा रहा हूँ। हर प्रकार से, प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग कर के दुर्योधन को समझाऊगा। और यदि उसने तथा उस के सहयोगियो ने कुछ षड़यन्त्र रचना चाहा या अपमान किया तो मैं उनकी सभा में ही उन्हे मौत के घाट उतार दूगो। आप विश्वास रखिये कि उन आतताईयो के किसी जाल मे भी .फसने वाला नही - - ." . . . . . __"पाप की इच्छा को मैं समझ रहा हू-आप अपनी पोर से कोई कसर नहीं चाहते। अपनी अन्तिम कोशिशे करना चाहते है, परन्तु शत्रु को नीति को ध्यान में रख कर ही कुछ करना चाहिए। आप उन से मांवधान रहे, यही मैं कहना चाहता था, पर लंगता है कि जो बात मैं आप से कहना चाहता था, वह पापं पहले ही से जानते है। फिर भी पाप जाही रहे है तो मैं हृदय से कामना करता ह.कि प्रापको अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त हो । आप हम भाइयों
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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