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________________ २०४ जैन महाभारत जीवन साथी वीर ! कहां हैं मेरे रखवारे शूरवीर। हाय ! मुझे 'अबला समझ कर यह दुष्ट जीवित ही चिता मे जलाने लेजा रहे हैं। दौडो ! मुझे बचाओ।" इसी प्रकार आवाहन करती, विलाप करती, चीखती पुकारती द्रौपदी अर्थी के साथ वधी हुई श्मशान भूमि में गई। लगता था कि आज द्रौपदी के जीवन का अन्त कायर उपकीचकों के हाथो ही होना है। श्मगान भूमि मे चिता सजाई गई। कीचक का शव रख दिया गया और अग्नि लगाई ही जाने वाली थी, कि द्रौपदी ने बड़े करुण शब्दो में रोकर कहा-"पापियो किसी सन्नारी को जीवित जलाते हुए तुम्हे लज्जा नही आती? क्या वीर पुरुषो का यही धर्म है ? एक अवला के साथ इतना अन्याय करते हुए तुम्हारा हृदय नहीं कांपता? अरे दुप्टो इतना तो सोचो कि तुम भी किसी नारी की ही सन्तान हो। तुम ने भी किसी नारी की कोख से ही जन्म लिया।" पर उन दुष्टो की समझ में एक बात न आई। तव द्रौपदी ने पुकार कर कहा-"हे नाथ | आप तो दुखियों के सहारे हैं । आप के बनुप में तो इतनी शक्ति है कि सम्पूर्ण मत्स्य देश को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाले ऐसी दशा में आपकी सहधर्मिणी दुष्टो के हाथों अबला की नाई जीवित जलाई जा रही है, तो आप कहां हैं । नाथ। आप ने तो जीवन पर्यन्त मेरा साथ देने और मेरी रक्षा करने की शपथ ली थी।" कुछ देरी रुक कर वोली-'हे दिशात्रों! मेरे सहयोगो उस वीर गधर्व मे जाकर कहदो, जिम ने कोचक जैसे वलिप्ट को मार गिराया कि इस समय यदि उस ने सहयोग न दिया तो वह जिसकी आखा से आँसू न वहने देने के लिए वह गंधर्व समार भर मे टक्कर लेन को भी तैयार हो जाता है, इस ससार से चली जायेगी और हृदय में मिकायत लेकर मरेगी कि जब समय पाया तो पात्र बलशाला
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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