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________________ कीचक वध १९५ विजय पाने को उसकी उत्कठा ही उसका गुण बनी हुई है। वह अवश्य ही कीचक का वध करने को तैयार हो जायेगा। यदि कीचक का बध न हुया तो उस का मन सदा ही अपमान से जलता रहेगा और किसी वार भी भयकर घटना घट जाने का भय बना रहेगा। सभी वातें विचार कर उस ने भीमसेन से मिलने का निश्चय कर ही लिया। रात्रि अपने यौवन पर है। अल्हड रात्रि का घोर तिमिर व्याप्त है। पहरे दारो के अतिरिक्त सभी निद्रामग्न है। कभी कभी कुत्तो के भूकने से रजनी की निस्तब्धता विदीर्ण हो जाती है। दूर जगलो मे सियार अपनी स्वभाविक ध्वनि से वन की शाति को भंग कर देते हैं। पहरे दारो की आवाज और मैनिको की सीटियो की 'ध्वनि भी कभी कभी तिमिर मे चुभ जाती है। रनिवास मे पूर्ण शाति है, सभी खर्राटे भर रहे है, पर बेचारी द्रौपदी को नीट कहा, हार्दिक वेदना मे वह तड़प रही है। जब उसे विश्वास हो गया कि अब कोई नहीं है जो उस की गतिविधियो को देख सके। वह उठी और विल्ली के पैरो मे पग रखती हुई रनिवास से बाहर हो गई। पहची भीममेन के पास जाकर भीम सेन को जगाया। उसे इतनी रात्रि को द्रौपदी के आकस्मिक यागमन से पाश्चर्य हया। पाखे मल कर उम ने देवा पोर विस्मय पूर्ण शब्दो मे वोला --"है, यह क्या? पाचाली तुम यहा, इतनी रात्रि को कैसे ?" "तुम यहा खर्राटे भर रहे हो। पर मुझे नीद कैसे पाये। मेरे हृदय मे तो विष पूर्ण तीर चुभा है।" - द्रौपदी वोली। "माफ साफ बतानो ना कि क्या बात है? क्या कोई भयंकर घटना घटी है ?" "इम मे भयकर घटना और क्या हो मस्ती है कि पर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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