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________________ जैन महाभारत रानी जी । वही हुआ जिसकी मुझे अशका थी । उस समय प ने मेरी एक न सुनी और आज सेनापति ने मेरे साथ घोर प्रत्याचार किया ।" १९० विस्फारित नेत्रों मे उसकी ओर देखते हुए रानी ने पूछा"यह मैं क्या सुन रही हूं। मुझे सब कुछ बताओ कि उसने तुम्हारे साथ क्या अन्याय किया ।" "उस दुष्ट ने मेरा सतीत्व भग करने का असफल प्रयास किया - सोरन्ध्री वेष धारिणी द्रौपदी बोली -- और जब मैंने उस काम सन्तप्त, कामान्व और व्यभिचारी का विरोध किया तो उसने वन पूर्वक पाप लीला करनी चाही, मैं उसकी वलिष्ट भुजाओ मे मुक्त होकर राज दरवार की ओर भागी । उसने पीछा किया और भरे दरवार मे मुझे मारा । सभी सभासद और यहां तक कि महाराज भी यह सारा दृश्य मौन बैठे देखते रहे। किसी दो इतना भी साहस न हुआ कि उस पापी को दुष्कृत्य के विरोध में एक शब्द भी कहता । " "क्या इतने समय मे यह सर्व कुछ होगया ? - ग्राञ्चर्य प्रकट करते हुए सुदेष्णा ने कहा- तुम्हे वापिस आने में देर हुई तभी मेरा माथा ठनका था । हाय । मुझ ही से भूल हो गई जो तुम्हे विवश करके वहा भेजा । पर अव पश्चाताप से क्या होता हैं। वास्तव मे कीचक ने यदि ऐसा ही किया है तो यह उनका घोर अपराध है । तुम कहो तो मैं उसे मरवा डालू | " बेचारी मोरन्नी ने रानी के शब्दो को उसी रूप में समझा जिस रूप मे कहे गए थे, जबकि रानी भी कदाचित जानती होगी कहने को वह कह गई पर यह बात उस के बम के बाहर की थी । मोर ने उत्तर दिया- ' महारानी जी | आप को कष्ट ने की आवश्यकता नहीं । उस दुष्ट का वही aus ढंगे जिनवा वह अपराध कर रहा है।" रानी नौरन्ध्री के शब्दो को सुन कर सिहर उठी । भयान
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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