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________________ जैन महाभारत .. - कीचक ने इतना कह कर सौरन्ध्री की प्रोर घूर कर देखा । मैं यहा दासों के रूप मे हू, पर इसका अर्थ यह नही मैं तुम्हारी कामाग्नि का शिकार हो जाऊ? -सीरन्ध्री वॉली । "सौरन्ध्री । जब से मैंने तुम्हे देखा है, प्रशासक और तुम्हारे प्रेम का भूखा हो गया हू ! भाग्य के सितारे को चमकाना चाहो तो मेरे प्रेम को उत्तरे प्रेम में द फिर देखो मैं तुम्हे दासी से रानो बना दूंगा ।" मैं तुम्हारे रूप क तुम यदि अप ~ "तेरी रानी के पद पर मै एक बार नहीं सहस्त्र बार थूकर्त हूं । धिक्कार है तुम्हारी आत्मा को धिक्कार है तुम्हारे उच्च पद पर तुम अपनी वासना के मद मे इतना भी भूल गये कि मैं किसी क पत्नी हू । और पतिव्रता नारी स्वप्न मे भी किसी पर पुरुष क ओर नही देखती ?" - अपने क्रोध को नयन्त्रित रखते हुए सौर ने कहा । → ---- कीचक का रोम रोम जल उठा, एक बार उसका हाथ खड़ग की मूठ पर गया, पर तत्क्षण सम्भल कर उसने अपने घर नियत्रण किया, जोध को पोकर वीला - "कल्याणी । तुम्हारी बाते तो इतनी कटु हैं कि मुझे जैसा वीर उन्हें सहन नहीं कर सकता । पर क्या करू बिना जाने पहचाने ही मैं तुम्हें अपना हृदय दे बैठा हूं। अतएव मैं फिर तुम्हे सुपथ पर आने के लिए अवसर देता हूँ । वास्तव मे तुम्हारा यह अलौकिक रूप, दिव्य छवि और तुम्हारी यह सुकुमारता ससार मे अतुल्य हैं । तुम्हारा उज्ज्वल मुख तो चन्द्रमा को भी लज्जित कर रहा है। तुम जैसी मनोहारिणी स्त्री इससे पहले मैंने ससार मे नही देखी। कमलो मे वास करने वाली लक्ष्मी की साक्षात मूर्ति को दासी के रूप में देखकर मुझे मानसिक दुःख होता है। हे साकार विभूति, लज्जा, श्री, कीर्ति और काति जैसी देवियो का प्रति मूर्ति ! तुम तो सर्वोत्तम मुख भोगने योग्य हो, पर हाय ! तुम जघन्य दुःख भोग रही हो । मैं तुम्हारा उद्धार कर तुम्हे तुम्हारे अनुरूप स्थान देना चाहता हू तुम चाहो तो मैं तुम्हारे लिए अपनी अन्य पत्नियो को त्याग दूँ, या उन सभी को तुम्हारी सेविकाए बना दू । : मेरी प्रेम याचना स्वीकार करो और अपने भाग्य पर गर्व करो कि दासी होते हुए + १७६ "
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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