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________________ पाण्डव दास रूप में १६७ करूंगा कि उनकी संख्या भी बढती जाये, वे हृष्ट पुष्ट हो और दूध भी अधिक देने लगे।"-". इस के पश्चात युधिष्ठिर द्रौपदी से पूछना चाहते थे कि तुम कीनमा काम करोगी, पर उसका साहस न हुआ । मुह से शब्द ही न निकलते थे वे मूक से बने रहें, जी प्रादरणीया है, देवी के समान जिसकी पूजा होनी चाहिए, वह सुकुमार राज कुमारी किसी की कैसे और कौनसी नौकरी करेगी। युधिष्ठिर को कुछ न सूझा । मन ही मन व्यथित होकर रह गए यह सोच कर भी उनका मन सिहर उठता था कि जिसने सदा ही दास दासियो से सेवा कराई है, जो दूसरो को आदेश देती रही है, वह कैसे किसी की दासी बन कर उसके ग्रादेशो का पालन कर सकेगी? द्रौपदी समझ गई, और स्वय ही बोली-“महाराज ! प्राप मेरे लिए शौकातुर न हो। मेरी ओर से निश्चिन्त रहे। सीग्न्त्री वन कर मै राजा विराट के रनवास में काम करूगी। रानियो और राजकुमारियो की सहेली बन कर उन की सेवा टहल भी करती रहूगी। अपनी स्वतत्रता और सतोत्व पर भी कभी पाच न आने दूंगी। राजकुमारियों-की चोटी गूथने और उनके मनोरजन के लिए हसी खुशी से बात करने के काम में लग जाऊगी। मैं कहूगो कि महारानी द्रौपदी की कई वर्ष तक सेवा शुश्रुषा करती रही हूं।" द्रौपदी की बात सुन कर युधिष्ठिर के प्रानन्द का ठिकाना न रहा। उसको सहन शीलता की प्रशसा करते हुए बोले-"धन्य हो कल्याणी ! वीर वश की बेटी हो तुम ! तुम्हारी यह मगलकारी वाते और सहन शीलता का आदर्श तुम्हारे कुल के अनुरूप हैं।" विद्याचर, खेचर प्रादि कितने ही अनेक प्रकार के लोग अर्जुन के मित्र थे। साथ ही महाराज युधिष्ठिर के पास वह अगूठो भी यो जो उन के पिता पाण्ड को किसी समय एक विद्याधर ने दी
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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