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________________ जैन महाभारत चुके हैं । - मेरा कर्तव्य पूर्ण हुआ । अब मेरे न रहने पर भी आप मुझ से इनका पालन पोषण कर सकते है । परन्तु आप के बिना यह सम्भव नही है । इसके अतिरिक्त दुष्टो से भरे इस ससार में अनाथ स्त्री का जीवन दूभर हो जाता है । जिस प्रकार मास के टुकड़े को चील कौए उठा ले जाने की ताक मे मण्डराते रहते हैं, उस प्रकार इस नगर में दुष्ट पुरुष विधवा स्त्री को हडप ले जाने के ताक मे लगे रहते हैं । जैसे घी लगे टुकड़े पर कितने ही कुत्ते झपट पडते हैं उसी प्रकार किसी अनाथ स्त्री पर वदमाश लोग झपट पडते हैं । आप न रहे तो अपनी लाज की रक्षा और इन श्राप के बाल बच्चो का लालन पालन कैसे मुझ से होगा ? विना यह बच्चे तडप तडप के जान दे देंगे । इस लिए नाथं मुझे ही उस नर भक्षक के पास जाने दीजिए। पति के जीते जी पत्नी का स्वर्गवास हो जाय इस से बढकर और स्त्री के सौभाग्य की वात क्या हो सकती है ? मैं पतिव्रता नारी के समान आपकी सेवा सुश्रुषा करती रही। अपने धर्म का पूर्णतया पालन किया, अब मुझे मरने कोई दुख न होगा । अत आप मुझे सहर्ष प्राज्ञा दे दीजिये कि अपने परिवार के लिए मैं अपने प्राण दे दू ।" १२० - पत्नी की व्यथा पूर्ण बाते सुन कर ब्राह्मण से न रहा गया । उसने अपनी पत्नी को छाती से लगा लिया और असहाय सा हो कर दीन स्वर में अश्रुपात करने लगा । अपनी पत्नी को प्यार करते हुए बोला- प्रिये ! ऐसी बाते मत कहो। पति का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी की रक्षा और उसके जीते जो उसका साथ न छोडे, इस लिए मैं अपने प्राण बचा कर तुम्हे भेजू तो मुझ से वडा, पापी कौन होगा ? नही, नहीं मैं यह घोर पाप नही कर सकता । तुम्हारा वियोग सहन नही कर सकता ।" 栽 ן माता पिता की बाते सुन कर पुत्री ने दीनता पूर्वक कहा - " पिता जी ! आप मेरी वाते भी तो सुने, इस के पश्चात कभी न कभी इस आपकी जो इच्छा हो सोचें । मुझे तो परिवार से चले ही जाना है । अपने परिवार तो इससे अच्छी मेरे लिए सदगति और क्या हो सकती है ? आप * के काम में आ सकू
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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