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________________ me १०६ शकुनि ने कहा -- जैन महाभारत यही तो दुविधा है । एक तरफ तो पिता जी की प्रतिष्ठा के " ने स्थापित करने का महाप्रश्न है दूसरी में गिरने का पूरा भय है । दुःशासन है । परन्तु मैंने निर्णय कर लिया है कि हुए पथ पर भी चल कर परीक्षा करूंगा कि क्या परिणाम निकलत है । प्राज्ञाकारिता का नाट्य करते हुए दुर्योधन ने कहना प्रारम् किया - परन्तु श्रापहितैषियो की चेतावनो को भी झुठला नह सकता। इस लिए मेरे तो विचार मे यही जचता है कि पाड को वनवास से तो बुलवा लिया जाये और अपने आस-पास के किर छोटे नगर मे उनके निवास का, खान पान यादि सुविधाओ का प्रबन्ध कर दिया जाये । श्रौर देखा जाय कि हमारे इस कदम प्रजा पर और पाडवों पर क्या प्रभाव पडता है । C तरफ कुए से बचते हुए खा रंग जमाया। यह सब ठी एक बार पिता जी के सुभार ठीक है ठीक, कर्ण ने कहना शुरु किया- इससे एक तो की गतिविधि पर भी नियंत्रण रखा जा सकेगा दूसरे हो सकता कि आपके सद्व्यवहार से पाडव हृदय से प्राप को स्नेह करने जाये और हमारे महाराजा की इच्छा भी पूर्ण हो जाये । मेरे विचार मे इस कार्य के लिए वारणावत का चुनाव प्रच रहेगा। यहां से उन पर निगाह भी आसानी से रखी जा सके और वहां कोई विशेष सहायक भी उन्हे नही मिल सकेगा ।। यह भी उचित है । यदि पिता जी आज्ञा दे तो वहां एक श्रावत बनवाये देता हू जिस मे वे लोग राज्य कर्मचारियों से पृथक पृथक आराम से रह सकें। यदि उन्होने भाई चारे का सबूत दि तो बनवास की अवधि के पूर्ण हो जाने के पश्चात् राज्य लोट का कार्य-क्रम भी बनाया जा सकेगा । दुर्योधन ने कहा 14 धृतराष्ट्र. जो दतचित्त हो इनकी बात-चीत के उतार चढ को जाँच रहे थे, बोले— पुत्र, मैं तो यही चाहता हूं कि इस परी के चक्कर में न पड़ कर सरलता पूर्वक पाडवों का राज्य उ समर्पण करदो । वे धर्मात्मा एव कृतज्ञ हैं । कभी स्वप्नों मे 1
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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