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________________ जैन महाभारत - ही अतःपुर मे चले गए। . ... . . . . . . :- - विदुर ने मन में कहा कि अब इस वश का नाश निश्चित है। उन्होने तुरन्त अपना रथ जुतवाया और उस पर चढ कर जंगल मे उस ओर तेजी से चल पड़े जहा- पाण्डव बनवास के दिन बिता रहे थे। विदुर जी के चले जाने के बाद धृतराष्ट्र को अपनी भूल सुझाई दी। वह सोचने लगे विदुर जी को भगा कर मैंने अच्छा नहीं किया। इससे तो पाण्डवों की शक्ति ही बढ़ेगी। अतः उन्होने संजय, को बुलाकर उसे विदुर जी को समझा बुझा कर कर वापिस ले आने को भेजा। मंजय ने बन में जाकर विदुर जी को वहुत समझाया और धृतराष्ट्र की ओर से क्षमा मागी और विदुर जी को वापिस हस्तिना पुर ले आया। एक बार महर्षि मैत्रेय धृतराष्ट्र के महल मे आये। धृतराष्ट्र ने उनका बडा सत्कार किया, फिर हाथ जोड कर विनय पूर्वक कहा- “मुनिवर आप ने कुरु जगल के बन मे मेरे भतीजो को देखा होगा वे कुशल से तो है ? क्या वे वन मे ही रहना चाहते "है ? हमारे कुल मे उन के वनवास से परस्पर मित्र भाव कम तो नहीं हो जायेगा ?" महर्षि वोले-"राजन्' काम्पक वन मे अनायास ही पाण्डवो से भेट होगई - उन पर जो वीतो है, वो मुझे जात है। आप के और भीम जी के रहते हुए यह नहीं होना चाहिए था।" उस समय दुर्योधन सभा मे उपस्थित था, मुनिवर ने उसे लक्ष्य करके कहा-"राजकुमार | तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूँ कि पाण्डवो को धोखा देने का विचार. छोड दो। पाप का परिणाम सदा दुखदायी होता है । जो अन्याय तुम उनके साथ । कर रहे हो वास्तव में तुम अपनी आत्मा के साथ ही वह कर रहे हो। अब भी अधर्म का गस्ता छोड कर सुपथ पर आजायो । मैमि भाव और प्रेम पूर्वक रहो "
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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