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________________ द्रौपदी का चीर हरण ८९ लिए भयभीत होते हुए वह बोला-"पिता जी ! जो सम्पत्ति युधिष्ठिर हार चुके उसे वापिस कैसे किया जा सकता है। हम ने उन से यह सन्पत्ति छीनी थोडे ही है और न कोई अन्याय कर के ही ली है। नियम पूर्वक चौसर के खेल मे जीती है। इस लिए अब युधिष्ठिर का उस पर कोई अधिकार नहीं। न उसे वापिस लेने का साहस ही करना चाहिए। हम ने बल पूर्वक तो यह सब कुछ दाव पर लगवाया नही। फिर भी आप की आज्ञा को मैं टाल नहीं सकता। मैं इतना कर सकता हू कि युधिष्ठिर मेरी एक शर्त मान ले, तो उन्हे उसका राज पाट वापिस मिल सकता "बोलो क्या शर्त है ?" - "शर्त यह है कि पाण्डव द्रौपदी सहित बारह वर्ष तक बनों । मे जाकर रहे और तेरहवे वर्ष मे अज्ञात वास करे। यदि अज्ञात । वास के समय में वे कही पहचान लिए तो फिर उन्हे बारह वर्ष । वनवास और एक वर्ष अज्ञात वास मे व्यतीत करना होगा। यदि । वे नही पहचाने गए तो तेरह वर्ष उपरान्त 'पाकर वे अपना राज पाट वापिस लेने के अधिकारी होगे। यह शर्त यदि पाण्डव माने है तो मैं भाई होने के नाते उन के साथ यह दया कर सकता हू।"हर "हम किसी की दया के मोहताज नही है। हमारी भुजामों ६ मे शक्ति होगी तो हम स्वय अपना राज्य वापिस ले लेगे।"- ' भीमसेन ने गर्जना की। . . बात बिगडती देख कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने पास न बुलाया और बहुत ही विनम्र शब्दो मे प्रेम पूर्वक उन्हे इस शर्त को मान लेने पर विवश किया, कभी पाण्डु का वास्ता दिया, कभी म उनके दया भाव को याद दिलाया, कभी उन को सहन शीलता पा और भ्रात प्रेम को जागृत किया, तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से अशा उन्हे मजबूर कर दिया और अन्त मे उन से शर्त मनवा ही ली। प्र . ., बात तय हो गई और पाण्डव माता कुन्ती से विदा लें कर के पर परिवार सहित वनोको चल पडे ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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