SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन महाभारत सम्राट् जरासन्ध के दूत के द्वारा यह अतर्कित सन्देश पाकर महाराज समुद्रविजय बड़ी असमजस में पड़े। उन्हे कुछ समझ में न आता था कि क्या करे और क्या न करें । सिंहरथ को विजय करना बडी टेढ़ी खीर थी । उसके शौर्य और साहस की कथाए वे पहले ही सुन चुके थे, जिस कार्य को जरासन्ध के बड़े बड़े सामत और सेनापति न कर पाये उसी कार्य को उनके यहाँ कौन साध सकेगा । यह कुछ समझ मे नही आ रहा था । इस प्रस्ताव को सुनकर समुद्रविजय की सारी राजसभा में सन्नाटा सा छा गया । ६० तब निराशा मे डूबे हुए महाराज समुद्र विजय ने राज सभा में उपस्थित सब वीरों को ललकारते व उत्साहित करते हुये कहा कि मेरे यहाँ ऐसा कोई साहसी वीर नहीं है जो सिंहरथ से लोहा लेने को तैयार हो । यह मेरी आन बान और मर्यादा का प्रश्न है, अब यह महाराज जरासन्ध का प्रश्न नहीं रह गया, यह समुद्रविजय के सम्मान की रक्षा का प्रश्न है। क्या आप सब वीरों के रक्तों में क्षत्रियत्व का जोश ठंडा पड़ गया है ? जो किसी को भी तलवार म्यान से बाहर निकलना नहीं चाहती । समुद्रविजय के इस प्रकार बचनो को सुनकर सभी सभासदों के हृदयों मे उत्साह की तरंगें हिलोरे लेने लगीं। सभी के भुजदंड वीरोल्लास से फड़कने लगे, इससे पूर्व कि दूसरे कोई सामन्त कुछ कहें वसुदेव ने खड़े होकर निवेदन करना आरम्भ किया महाराज | आपकी आज्ञा से एक सिहरथ तो है ही किस खेत की मूली सैकड़ों सिहरथों को भी वात की बात में परास्त कर सकते है । आप हमे आज्ञा दाजिए हम अभी चढ़ाई के लिए प्रस्थान करते हैं, और देखते ही देखते उस अभिमानी का मान मर्दन कर उसके सिर को आपके चरणों में ला झुकाते है । लोग मुझे केवल सुन्दर सुकोमल और कलाप्रिय ही न समझे, मैं उतना ही साहसी वीर और दुघर्ष वीर भी हूं। अब तक लोगो ने मेरे काला प्रिय रूप को ही देखा है, अब मेरे परम पराक्रमी स्वरूप को भी पहचानें कि वसुदेव केवल गीत गाकर, मधुर वाद्य यन्त्र बजाकर नर नारियो के मनों को मोहित करना ही नहीं जानता, वह आवश्यकता पड़ने पर रणक्षेत्र में वाण वर्षा कर शत्रुओ के छक्के भी छुड़ा सकता है। उसके जो सुकुमार कर अपने कोमल अंगुलियों से वीणा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy