SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन महाभारत mmmmmmmmm मनुष्य पर जहां कुसंगति का प्रभाव पड़ता है सत्संगति का भी अवश्य पडता है 'जैसा सगत बैठतां वैसा ही गुण लीन' के अनुसार राजपरिवार मे बसुदेव की देखरेख में राजकुमारो के साथ रहते-रहते कस का जीवन भी सुव्यवस्थित और अनुशासित हो गया। उसका बल वीर्य और पराक्रम तो उत्तरोत्तर बढ़ने लगा पर उसके वे उपद्रव और अत्याचार कुछ समय के लिए शान्त हो गये। उसकी दशा सचमुच मत्रमुग्ध सर्प या पिंजरवद्ध सिह की जैसी हो गई। बसुदेव रूपी चतुर महावत ने अपने बुद्धि के छोटे से प्रखर अंकश से कसरूपी मदोन्मत्तहाथी को देखते ही देखते इस प्रकार साधकर वश में कर लिया कि लोग आश्चर्य चकित हो दांतों तले अगुली दबाने लग गये। सिंहस्थ विजय इधर शुक्तिमति नगरी मे वसुराज के पुत्र सुवसुराजा राज्य करते थे। कालान्तर में उन्हों ने रसनगर को छोड़ कर नागपुर को अपनी राजधानी बना लिया, यहाँ पर इनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम वृहद्रथ था, बड़ा होने पर वृहद्रथ ने राजगृह को अपनी राजधानी बनाया। वहीं पर उनके वंश मे जयद्रथ नामक राजा हुआ । इस जयद्रथ का पुत्र जरासन्ध था । यही महाराज जरासन्ध जैन शास्त्रों में प्रति वासुदेव के नाम से विख्यात है। जरासन्ध परम प्रतापी सम्राट था, तीनों खेडो पर उसका राज्य था, सभी राजा महाराजाओं को अपने अधीन करके उसने महान् मगध साम्राज्य की प्रतिष्ठा की थी। जो राजा उसके अधीन नहीं थे, वे भी उसके आतङ्क से अभिभूत हो कर उसका लोहा मानते थे। इस पृथ्वी पर कोई ऐसा शासक या नरेश नहीं था जिसकी आज्ञा शिरोधार्य नहीं, उसके विरूद्ध जो भी कोई सिर उठाता वह तत्काल अपने अधीनस्थ दूसरे राजा को या अपनी सेनाओ को भेज कर उसका मान-मर्दन कर देता। उसकी भौहों मे वल पडता देख बड़े वडे वीर नरेश थर थर कॉपन लगते । साक्षात् कृतान्त के समान उसका आतङ्क देश देशान्तरो के नरेशो को सतत कम्पित करता रहता था। किन्तु ससार मे एक से एक बढ़कर प्राणी पड़े है। वैताढ्य पर्वत के निकट सिंहपुर नामक नगर था, वहाँ सिहरथ नामक राजा राज्य करता था। उस अपने दुर्ग और राजधानी की दुर्गमता तथा अपनी वीरता
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy