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________________ द्रौपदी स्वयवर ५७७ यही तो परीक्षा का समय है।" __इस प्रकार सोचते हुए उस दीर्घ तपस्वी ने उस कटुक पदार्थ को प्राणी दया निमित्त पृथ्वी पर न डाल अपने उदर में ही स्थान दिया। बस फिर क्या था । उसके पेट में उतरते ही मुहूर्त भर में उनके कर्कश एव असह्य वेदना उत्पन्न हो गई और देखते-ही-देखते उनका शरीर निर्जीव गया। उसकी आत्मा स्वर्गगामी हो गई । अर्थात् प्रतिक्रमणपापालोचना करके सिद्ध एव अरिहत तथा अपने आचार्य को वदना कर अन्त मरण समाधि में लीन हो उनकी आत्मा सर्वार्थसिद्ध नामक देवलोक में चली गई। ___ धर्मरुचि अणगार को न आता देखकर स्थविर धर्मघोष के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ 'कि क्या बात है वह तपस्वी अब तक लौटकर नहीं आया । शरीर के कृश होने के कारण कहीं कोई आशंकित घटना तो नहीं घट गई।' यह सोचकर उन्होंने अपने शिष्यों को ढूढ़ने के लिए भेजा। दू ढ़ते-ढूढ़ते शिष्य उसी निर्जन वनखण्ड में जा पहुचे जहा धर्मरुचि अणगार के पार्थिव देह के सिवाय कुछ नहीं था। उसके प्राण रहित व निश्चेष्ट शरीर को देखकर उन्हे बड़ा विस्मय हुआ। अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा हा हा । अरे ।। यह अकाल में कुकार्य कैसे हुआ। मण्डल की इस दिव्य-विभूति के जीवन के साथ किसने खिलवाड़ की।" फिर उन्होंने कायोत्सर्ग कर उस दिवगत आत्मा के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की और उसके रहे हुए धर्मोंपकरणों को लेकर चले आये। धर्मरुचि के उपकरणों को अपने सामने देख आचार्य धर्मघोष ने पूर्वगत उपयोग लगा अथवा अवधिज्ञान के बल से इस अनर्थ के कारण ढदने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने बताया हे आर्यों धर्मरुचि अणगार की मृत्यु का कारण इसी नगरी में अवस्थित नागश्री नामक ब्राह्मण पत्नी द्वारा दिया कटुक व्यजन है अत यह ब्राह्मण पत्नी निर्दया अधन्या तथा अपुण्यवती है, जिसने अपने तनिक स्वार्थ के लिये उस सरल हृदय विनयात्मा धर्मरुचि के प्राण ले लिये। और इसी महापाप बन्ध के कारण ही उसे नर्क-तिर्यक् आदि अशुभ योनियों में भटकना होगा।" गुरु मुख से इन वचनों को सुनकर शिष्यगण बड़े कुपित हुये।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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