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________________ * छब्बीसवा परिच्छेद * द्रुपद का संकल्प दोणाचार्य को भीष्म जी ने विदाई में अच्छी सम्पत्ति दी थी ऊपर से उन्हें द्र,पद का आधा राज्य मिल गया। वे बड़े प्रसन्न थे। विदा होकर वे द्र, पद से मिले और राज्य मे चले गए। पर शास्त्र कहते हैं कि वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता। द्रोण ने तो अपने अपमान का बदला ले लिया, और उसके बाद वे दोनों गले भी मिल गए, पर अब द्र पद के हृदय में बैर की अग्नि प्रज्वलित हो गई । वह बोला-द्रोण ! तुम ने क्रोध के मारे मुझे अपने शिष्यों से बंधवा मगाया । क्या यह तुम्हारी विद्या कुविद्या नहीं है ? मैं पागल हो गया था पर तुम तो ब्राह्मण थे तुम्हें तो शान्ति रखनी चाहिये थी। इस प्रकार बाध कर मंगाने में चाहे तुम्हारे मन को शान्ति मिली हो, पर विजय का श्रेय तुम्हें तो नहीं, हां, बाधने वाला अवश्य वीर है । और उसकी वीरता को मै स्वीकार करता है। परन्तु ब्राह्मण होकर क्रोध करते हो । तुमने मुझे पकड़ कर मगाया और ऊपर से वाग्वाण मारे। इस अपमान का बदला लेने को मैं भी व्याकुल हूँ। मैं भी यदि द्रोण रहित भूमि न कर दू तो मेरा नाम द्रपट नहीं।" ___ इस प्रकार द्रपद के हृदय में द्रोण द्वारा किया अपमान शूल की भांति हृदय मे चुभता रहा। उसके हृदय में बदले की आग भडक उठी। वह खाते पीते, सोते उठते, बैठते, हर समय इसी चिन्ता में रहता कि द्रोण से बदला कैसे लू । अन्त में उसने सोचा कि द्रोण के शिष्य पाण्डव कौरव बड़े बलशाली है और अब द्रोण को आधा राज्य भी मिल गया अतएव शक्ति से द्रोण से बदला लेना असम्भव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही है।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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