SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रोण का बदला ही क्षण वह सोचने लगा कि अब इस बात का विचार करने या इस पर पश्चाताप करने से क्या लाभ ? अब तो कौरव पाण्डवों का वीरता से सामना करना ही होगा। द्र पद ने तुरन्त अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी और सेना लेकर स्वय कौरवों का सामना करने के लिए चल पड़ा । कौरवों और द्र पट की सेना में घमासान युद्ध होने लगा। कुछ देर तक तो कौरवों ने डटकर सामना किया, पर द्र पद की शक्ति अधिक थी, जब दुर्घषण युद्ध में उनसे द्र.पद सेना के प्रहारों को न रोका जा सका तो उनके पांव उखड़ गए । द्रुपद के सामने उनकी एक न चली। कौरवों को बड़ी ही निराशा हुई। इतने में पाण्डव भी निकट आ चुके थे, जब उन्होंने कौरवों को भागते देखा तो समझ गए कि द्र पद की शक्ति से भयभीत होकर कायरों की भॉति भाग,रहे है। ___ अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा-"भ्राता जी | आप यहीं ठहरिये । क्योंकि आपने गुरुदेव से जो वार्तालाप किया था उसका स्पष्ट अर्थ था कि आप द्र पद पर चढ़ाई करने के विरोध में है आपको तो गुरु आज्ञा की पूर्ति के लिए ही हमारे साथ आना पड़ा है। अतएव मैं आपका इस युद्ध में कूदना उचित नहीं समझता क्योंकि जब आत्मा साथ न दे, हृदय शकित हो, मस्तिष्क शाँत न हो, तो युद्ध नहीं करना चाहिए।" युधिष्ठिर बोले-"ठीक है कि मैं भी यही चाहता था।" युधिष्ठिर वहीं ठहर गए और चारों पाण्डव भ्राता आगे बढ़ गए। उन्होंने कौरवों को ललकार कर कहा-"क्या आप लोग कौरव कुल की कीर्ति को कलकित करने यहा आये है ? यदि पद से युद्ध करने की शक्ति नहीं थी तो आगे बढ़ने का साहस क्यों किया था ? दुर्योधन बोल उठा-"हम तो यह सोचकर आगे बढे थे कि द्र पद को बाँधने का कष्ट आपको न करना पड़े। हम ही कर डाल पर फिर सोचा द्र पद को बांधने की प्रतिज्ञा तो अर्जुन ने भी की थी अतएव द्र पद को बाधने का कार्य अजुन के हाथ से ही होना उचित है । यही सोचकर हम मन लगा कर नहीं लड़े।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy