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________________ * पच्चीसवां परिच्छेद * द्रोण का बदला प्राचार्य द्रोण को इस बात की बड़ी प्रसन्नता थी कि परीक्षा में कौरव और पाण्डवो ने जो कलाए दिखाई उसकी चारों ओर बहुत ही प्रशसा हुई और सभी पर उनकी विद्याओं का प्रशसनीय प्रभाव पड़ा। राजपरिवार बहुत ही प्रसन्न था और लोग आचार्य द्रोण की शिक्षा की बहुत ही सराहना कर रहे थे। आचार्य द्रोण अपने शिष्यों की योग्यता को देखकर अपने को कृतार्थ समकने लगे। वे सोचते कि वे सुशिष्यों को पाकर अपने गुरु के ऋण से उऋण हो गये। उन्होंने विद्या की वरोहर ली और कुछ सुपात्रों को दे दी, यही तो विद्यावान का धर्म है। वह उन्होंने निभा दिया । वे बड़े प्रसन्न थे। परन्तु जहाँ उनका हृदय प्रफुल्ल था वहीं एक वेदना भी उनके हृदय को कचोट रही थी, एक शल्य था जो अभी तक चुभ रहा था। उन्होंने द्रुपद के दरबार में जो प्रतिज्ञा की थी वह अभी तक उनके मस्तिष्क में विद्यमान थी और उसकी पूर्ति की कामना उन्हें व्याकुल किए हुए थी। वह स्वप्न जो अभी तक उनके मन में सो रहा था, शिष्यों के सुयोग्य होने पर अगड़ाई लेकर जाग उठा और उन्हें विचार आया कि अब राजा द्रपद से बदला लेने का उचित अवसर है । अर्जुन ने मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ही ली है, लगे हाथों अपनी उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करा लेना ही श्रेयस्कर है। द्रोणाचार्य ने अपने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया, कर्ण के अतिरिक्त सभी गुरु के पास एकत्रित हो गए। श्राचार्य जी ने समस्त शिष्यों को सम्बोधित करके कहना श्रारभ किया-"तुम लोगों को अपनी शक्विभर मैंने परिश्रम के साथ शिक्षा दी। और अब तुम
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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