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________________ '५१८ जैन महाभारत __mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm में आकर वह बहुमूल्य उपहार ले जा चुकी है, जिसके लिए श्री कृष्ण । उसे याद किया था। . सत्यभामा मुखरित पुष्प की भॉति खिलती और अपने रूप की छवि बिखेरती जब वहां पहुंची, तो श्री कृष्ण को कुछ आश्चर्य हुआ। वे पूछ बैठे-"फिर आ गई, क्या नहल मे मन नहीं लगा ?" इस प्रश्न से सत्यभामा को आश्चर्य होना ही चाहिए था, वह बोल उठी-"आपका का सन्देश मिला और चली आई। अभी अभी तो आ रही हूँ।" श्री कृष्ण इस उत्तर से समझ गए कि कहीं उन्हे ही भूल हुई है, अथवा इसके पीछे कोई रहस्य है । सत्यभामा अब आ रही है तो पहली कौन थी ? यह प्रश्न उनके मन में हठात् उठा और पुण्यात्मा श्री कृष्ण को समझते देरी न लगी कि सत्यभामा सत्य कह रही है । कोई दूसरी ही उसके रूप मे आकर उन से बहुमूल्य प्रसाद ले गई है। पर अब इस बात को खोलना लाभदायक नहीं होगा, अत वे तुरन्त कह उठे-"अच्छा ! तो तुम अब आ रही हो ? आओ, मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा में था।" उन्होने सत्यभामा के साथ अनेक क्रीड़ाएं की और एक दूसरा ही हार उसे उन्होंने दिया और उनके द्वारा प्रदर्शित प्रेम से सत्यभामा का हृदय बहुत प्रफुल्लित हुआ । उसे अपने भाग्य पर गर्व होने लगा। महल में आकर जब श्री कृष्ण ने मणिभासुर हार जाम्बवती के गले में देखा तो वे सब समझ गए कि हो न हो प्रद्युम्न का ही चमत्कार है। ____ एक बार जाम्बवती अपने शयन कक्ष में पुष्प शैया पर सो रह थी, कि रात्री के चतुर्थ प्रहर की शुभ बेला मे अर्धनिद्रित अवस्था मे एक धवल वर्ण युक्त कातिवान सिह उसके मुख मे प्रवेश कर गया है ऐसा स्वप्न दिखाई दिया । इस स्वप्न को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुई और श्री कृष्ण के प्रासाद में जाकर उसका फल पूछा । उन्होंने उसे बताया कि तुम्हे एक प्रद्युम्न के भांति एक होनहार पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। इस शुभ वचनो को सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और अपने गर्भ की दरिद्र के रत्ल की भॉति रक्षा करने लगी। पश्चात् नौ मास उप
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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