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________________ ५१६ जैन महाभारत सत्यभामा की इम बात को सुनकर श्रीकृष्ण को मन ही मन बडा दम हुआ। पर सत्यभामा को सन्तोष दिलाने के लिए वे बोले प्रिये । ना कहकर मेरा दिल मत दुग्याओ। तुम तो मेरे अन्तपुर में अप्रमहिपी हो । आज तुम जो ऐसी बात करने लगी हो क्या किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया है ? __"नहीं प्राणनाथ, मेरे को फिमी ने कुछ नहीं कहा है, मात्र मेरे हृदय में यही एक चुभन है कि मेरे प्रद्युम्न जैसा कोई यशस्वी पुत्र नहीं है जा कि मेरे नाम को उज्वल कर सके । नाथ ! यदि आप मेरे को अपनी प्रिया समझते है तो मेरे को भी उसके समान पुत्र दीजिये।" सत्यभामा की इम उप्र उत्कण्ठा को देख कर श्रीकृष्ण ने उसे विश्वास दिलागाकि "मैं देव की भागवना कर तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करगा।" ऐसा करकर वे चल गये। पश्चान गहा ने अहम भत्त अर्थात तीन दिन तक निरन्तर उपवास किया, जिसके फल स्वरूप हरिणेगमेपी नामक एक देदिप्यमान देव प्रगटा और उसने हाथ जोडकर निवेदन किया महाराज मैं प्रत, पाता कीजिगं । देव को उपस्थित देखकर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा का वृत्तान्त कह सुनाया। इस पर देव ने प्रसन्न हो एक दिव्य हार देते हुए का गजन ! यह कार श्राप जिस रमणी के गले में डाल दाग उमा प्रदयुम्न तुमार सदा ही रूप, गुरग वाला पुत्र उत्पन्न होगा। देवयानपान हा गया । श्रीकृrवहाँ से हार ले कर महलों में आ गये। पचान एक दिन कीवा के लिये अकले ही उपवन में गये । और परिचारिका को मत्यभामा को वहां पहुंचने के लिये कहा।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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