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________________ ५०८ जैन महाभारत रहस्य के सम्बन्ध मे जो कि कनकमाला और प्रद्युम्नकुमार के सम्बन्धों के पीछे उसे अनुभव हुआ। नृप ने पूछा-"रानी! क्या अचानक आते ही कुमार ने तुम पर आक्रमण कर दिया था ? ___"हां, उसने तो मुझे इतना भी अवसर नहीं दिया कि सम्भल भी सकती।" रानी के इस उत्तर ने नृप को सशंक कर दिवा । उसने दासियों की बुलाकर पूछा-"क्या तुम लोग उस समय नहीं थी जब प्रदयुम्न कुमार ने रानी पर आक्रमण किया वा ?" ___ दासियों ने बताया-"हम वहां थीं पर कुमार ने कोई आक्रमण नहीं किया । कुमार ने हमारे सामने नहीं किया । कुमार ने हमारे सामने शिष्टता से व्यवहार किया था, कुछ देर बाद रानी जी ने हमें बाहर चले जाने का आदेश दिया था ।" नृप ने फिर दासियों से पूरा वार्तालाप पूछा, जो कुमार और रानी के बीच उनके सामने हुआ था । और उसे सुनकर नप इस परिणाम पर पहुंचा कि रानी ही पापिन है, कुमार दोषी नहीं है । प्रद्युम्न कुमार को उसने बुलाया और बड़े स्नेह से उससे वार्ता करके सारी बातें पूछी । कुमार ने उत्तर में इतना ही कहा कि यह सब मेरे पूर्व जन्म का ही दोष है।" नप ने कुमार को छाती से लगा लिया और बहुत आदर सत्कार के साथ वापिस अपने महल में जाने की आज्ञा दी। # कुमार की द्वारिका के लिए विदाई * उसी समय नारद जी वहां आ पहुचे । और रुक्मणि को, पुत्र वियोग में हो रही दुर्दशा का वृत्तांत सुनाकर कुमार को द्वारिका को वापिस चलने की प्रेरणा दी । कुमार स्वयं ही मातेश्वरी के दर्शन करने के लिए लालायित था, नारद जी के साथ चलने को तैयार हो गया, उसने नृप तथा रानी के चरण छू कर त्रुटियों की क्षमा याचना की और वायुयान में सवार हो कर चल दिया । उस दिन नप की राजधानी में सभी नर नारियों की ऑखो से अश्र धार बह रही थी। उन्हें ऐसे चरित्रवान तथा गुणवान युवराज को विदा देते असीम शोक हो रहा था। पर मन ही मन वे यह सोच रहे थे कि कुमार रुक्मणि तथा
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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