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________________ यदुवश का उद्भव तथा विकास २३ निमिराच्छन्न वन-वीथिका में जा निकला। यह स्थान ऐसा घना अन्धकारमय था कि ओरों की तो बात ही क्या स्वय सूर्य किरणों का भी यहाँ प्रवेश नहीं हो पाता था। ऐसे भयकर बीहड़ जगल में जा नन्दीपेण ने पतली-पतली लताओ की सुकोमल शाखाओं का फन्दा बना अपने गले में फसा प्राण देने का निश्चय कर लिया। इसी समय दैवयोग से एक मुनिराज उधर से आ निकले । उन्होंने जब देखा कि कोई व्यक्ति इस निभृत लताकु ज में कोई व्याक्त आत्महत्या करने में उतारू हो रहा है तो उनका कोमल हृदय दयाद्र हो उठा। वे तत्काल उसके पास जा पहुँचे और कहने लगे कि, हे । भाई, मनुप्य का दुर्लभ जन्म पाकर भी तुम इसे व्यर्थ मे क्यों खोना चाहते हो । ऐसा तुम पर कौन सा भयकर कष्ट आ पडा है । जो अपने हाथो अपने प्राण देने को उतारू हो रहे हो। तुम्हारा यह शरीर सुदृढ है इससे प्रयत्न और पुरुषार्थ करने पर इस ससार मे तुम्हे कहीं कोई प्रभाव नहीं रह सकता, अपने मन को इस प्रकार उना न बनाओ, धैर्य धरो और जीवन को सार्थक करने के लिये दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाओ। __ मन के हारे हार है मन के जीते जीत के अनुसार अपने मन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करो। जब तुम मन के स्वामी बन जाओगे तो ससार में तुम्हारे लिये कहीं कोई वस्तु अप्राप्य या दुर्लभ नहीं रहेगी। ___ मुनि के ऐसे सात्वना भरे वचन सुनकर नन्दीपेण फूट-फूट कर रोने लगा। हाय जोड 'पौर मुनि के पैरो पडकर कहने लगा कि 'महाराज ! यापने मुझ दुखिया को मरने से क्यो बचा लिया। मसार में कोई भी मेरा नहीं है । इस भार-भूत जीवन को लेकर मैं क्या करूँगा ? मुझे अपनी राद चले जाने दीजिये। ताकि इस कुत्सक जीवन से छुटकारा मिल जाये। नन्दीपेण के ऐसे निराशा भरे शब्द सुनकर मुनिराज ने उसे दाटन बधाया और बोले कि जब तक तुम ससार के पीछे भाग रहे हो तय तक संसार तुम से दूर भाग रहा है पर जब तुम संसार को धता पता फर प्रात्म-चिन्तन में लीन हो जाओगे तो सारा ससार स्वय तुम्हारे
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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