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________________ प्रद्युम्न कुमार ५०१ रूप ने मुझे विषयानुरागिनी बना दिया है । मैं तुम्हें अपनी शैया पर 1 देखने के लिए आतुर हू } कुमार विद्युतगति से रानी से अलग हो गया, जैसे किसी नागिन ने क मार दिया हो। उसकी आंखों में असीम आश्चर्य के भाव हिलोर ले रहे थे । उसने कहा - " मां तुम्हारा मस्तिष्क फिर गया है, तुम पागल हो गई हो। अपने पुत्र से ऐसी बातें करते तुम्हें लज्जा अनुभव नहीं होती ?” 1 "कुमार | मैं तुम्हारी मा नहीं हूँ ।" रानी बोली कुमार को और भी आश्चर्य हुआ - ' क्या कह रही हो तुम " " ठीक कह रही हॅू। मैंने तुम्हे पहाड़ पर से उठाया था । उस समय तुम्हारी गुली में नामांकित एक मुद्रिका थी, उसमें तेरा, तेरी जन्मदातृ माता रुक्मणि और पिता श्रीकृष्ण का नाम अकित था । अत मैं माता नहीं हूँ । रानी का उत्तर सुनकर कुमार के मस्तिष्क को एक झटका सा लगा, पर वह उस समय इस विषय पर सोचने की दशा में नहीं था | उसने कहा - "जो भी हो, तुमने ही मेरा मातसम पालनपोषण किया है । इसलिए मेरे लिए तो तुम्हीं मॉ हो, चलो ऐसा न सही धात्री समान ही सही, किन्तु वह पद भी मातृपद से कम नहीं होता अतः फिर तुम्हें मुझसे ऐसी बातें करते हुए लज्जा नहीं आती ?" "प्रद्युम्न कुमार | अपने लगाए हुए तरु के फल कौन नहीं खाता, क्या अपने द्वारा निकाली नहर के जल से पिपासा शांत करना अनुचित है | क्या अपने हाथों से पाले हुए अश्व पर सवारी करना उचित नहीं है । क्या किसी को उस पुरुष की सुगंध से आनन्दित होने में लज्जा आती है, जो उस पौधे पर खिला हो जिसे उसी ने सींचा था । क्या अपनी कमाई के द्वारा ऐश्वर्य लूटना लज्जाजनक है ? यदि यह सब उचित है तो फिर तुम्हें अपना हृदय सम्राट् बनाना, मेरे लिए क्यों अनुचित है।" रानी ने उत्तेजित होकर प्रश्न किया । इन उक्तियों के उत्तर में प्रद्युम्न कुम्पर बोला - "तो फिर तुम्हारे विचार से अपनी कन्या को पिता सहधर्मिणी बना सकता है । मा, ऐसी पापयुक्त बातें कहकर मुझे इस बात पर विवश मत करो कि मेरी जिहा से आपके लिए कुछ कठोर शब्द निकल पड़े ।"
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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